Sunday, January 9, 2022

भगवान श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य

!! राधे राधे !!                                                                                                          !! जय श्री कृष्ण !!

श्रीमद्भगवद्‌गीता का अध्याय-१० 

(भगवान श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य )

प्रश्न:- कृष्ण के ऐश्वर्य को जानने के महत्व को विस्तार से समझाएं।

प्रस्तावना:- इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अपने सखा अर्जुन को अपनी सृष्टियों एवं अपने विभिन्न ऐश्वर्यों के विषय में बता रहे हैं।


श्रीभगवान कहते हैं ना तो देवता और ना ही महर्षि गण ही मेरे उत्पत्ति और ऐश्वर्या को जानते हैं। अतएव श्रीकृष्ण उस हर वस्तु से भिन्न है जिसकी सृष्टि हुई है और जो उन्हें इस रूप में जान लेता है वह तुरंत ही सारे पापों से मुक्त हो जाता है। परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मनुष्य को समस्त पाप कर्मों से मुक्त होना चाहिए जैसा कि श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है कि उन्हें केवल भक्ति के द्वारा ही भगवान को जाना जा सकता है और किसी अन्य साधना से नहीं। श्री भगवान कहते हैं कि मेरे भक्तों के श्रेष्ठ विचार मुझ में वास करते हैं । जो प्रेम पूर्वक मेरी सेवा में निरंतर लगे रहते हैं, मैं उन्हें ज्ञान प्रदान करता हूं जिनके द्वारा वह मुझ तक आ सकते हैं। मैं उन पर विशेष कृपा करके उनके हृदय में निवास करता हूँ, जिससे ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा उनके जीवन का अंधकार दूर हो जाता है । श्रीभगवान कहते हैं कि जैसे ही कृष्णभावनाभावित भक्त भगवान के विषय में सुनता है वैसे ही उसका मन भक्ति का प्रचार-प्रसार होने लगता है।

अतः प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के ९ प्रकार बताए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं।

                        श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।

                        अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥          (श्रीमद्भागवत पुराण  ७.५.२३)

श्रवण: ईश्वर की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्त्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।

कीर्तन: ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।

स्मरण: निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।

पाद सेवन: ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।

अर्चन: मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।

वंदन: भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।

दास्य: ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।

सख्य: ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।

आत्म निवेदन: अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।


अतः इस प्रकार श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) - इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।


अर्जुन उवाच

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्‌ ।

पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्‌ ॥10.12॥

आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।

असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥10.13॥

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।

न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥10.14॥


अपने शब्दों में विस्तार भावार्थ:- भगवान श्रीकृष्ण के सामने बैठे हुए अर्जुन ने कि हे श्रीकृष्ण तुम तो स्वयं परम ब्रह्म हो, परम धाम हो – जिस धाम के अंदर सारा ब्रह्माण्ड स्थित है. प्रवित्रम में भी सबसे पवित्र आप हो, आप शाश्वत हो, दिव्य पुरुष हो, सगुन और निराकार आदिदेव हो, अजन्मा, आप ही सर्व व्यापी, सर्व शक्तिमान विभु हो। वास्तव में अर्जुन कह रहे हैं कि हे कृष्ण आप ही समग्र परमात्मा हो।

धर्मग्रंथों में, सारे ऋषियों, महा ऋषियों ने, देवऋषि नारद, महान असित और उनके पुत्र धवल, महा ऋषि व्यास भी आपको ही परम ब्रह्म मानते हैं. (महाभारत के वन पर्व १२/५०, और भीष्म पर्व में ६८/५ में इसका वर्णन है)।

अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण को यह समझाने का प्रयत्न करा रहे हैं कि हे केशव आपने मुझसे जो कुछ भी कहा है उन सारी बातों पर मुझे पूर्ण विश्वास है। देवतागण और असुरगण भी आपके इस स्वरूप को नहीं जानते है।

इन सभी बातों के उपरांत अर्जुन भगवान से निवेदन करता है की हे प्रभु कृपा करके विस्तार पूर्वक आप मुझे अपने उन देवी ऐश्वर्यों को बताने की कृपा करें जिसके द्वारा आप इन समस्त लोगों में व्याप्त है। 

तदोपरांत भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन! मैं सभी के हृदय में स्थित आत्मा हूँ तथा संपूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूँ।

मैं आदित्य में विष्णु, प्रकाशों  में सूर्य, मारुति में मरीचि, नक्षत्रों में चंद्रमा, वेदों में सामवेद, देवों में स्वर्ग का राजा इंद्र, इंद्रियों में मन, समस्त रुद्रो में शिव, यक्षों तथा राक्षसों में संपत्ति का देवता कुबेर, वसुओं में अग्नि, समस्त पर्वतों में मेरू पर्वत, समस्त पुरोहितों में बृहस्पति जी, सेनानायकों में कार्तिकेय, समस्त जलाशयों में समुद्र, समस्त महर्षि भृगु, वाणी में ओंकार, यज्ञों में कीर्तन, समस्त अचलो में हिमालय, समस्त वृक्षों में पीपल का वृक्ष, देवर्षियों में नारद मुनि, गन्धर्वों में चित्ररथ, सिद्धों में कपिल मुनि, घोड़ों में उच्चैःश्रवा, हाथियों में ऐरावत, मनुष्यों में राजा, शस्त्रों में वज्र,  गौओं में कामधेनु, सन्तान की उत्पत्ति का हेतु कामदेव, सर्पों में सर्पराज वासुकि, नागों में शेषनाग, जलचरों का अधिपति वरुण, पितरों में अर्यमा नामक पितर, शासन करने वालों में यमराज, दैत्यों में प्रह्लाद, गणना करने वालों का समय, पशुओं में मृगराज सिंह, पक्षियों में गरुड़, पवित्र करने वालों में वायु, शस्त्रधारियों में श्रीराम, मछलियों में मगर, नदियों में श्री भागीरथी गंगाजी हूँ।

 


हे अर्जुन! सृष्टियों का आदि और अंत तथा मध्य भी मैं ही हूँ। मैं अक्षरों में अकार, समासों में द्वंद्व नामक समास, काल का भी महाकाल, सबका नाश करने वाला मृत्यु, स्त्रियों में कीर्ति (श्री, वाक्‌, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा), छंदों में गायत्री छंद, महीनों में मार्गशीर्ष, ऋतुओं में वसंत मैं हूँ।

मैं छल करने वालों में जूआ, जीतने वालों का विजय, निश्चय करने वालों का निश्चय, सात्त्विक पुरुषों का सात्त्विक भाव, वृष्णिवंशियों में वासुदेव, पाण्डवों में धनञ्जय अर्थात्‌ तू, मुनियों में वेदव्यास, कवियों में शुक्राचार्य कवि दमन करने वालों का दंड, जीतने की इच्छावालों की नीति, गुप्त रखने योग्य भावों का रक्षक मौन,  ज्ञानवानों का तत्त्वज्ञान मैं ही हूँ।

अतः अर्जुन इस ज्ञान को जानने की क्या आवश्यकता है? मैं तो स्वयं अपने एक अंश मात्र से संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त होकर इसको ग्रहण करता हूं।

उपसंहार:- अतः भगवान के ऐश्वर्य को वही जान सकता है जोकि भगवान की भक्ति करता है, वही उसे समझ सकता है, वही उसे जान सकता है, वही उसे प्राप्त कर सकता है, कोई अन्य व्यक्ति उसे प्राप्त नहीं कर सकता।

नाम  संकीर्तनं यस्य  सर्व पाप प्रणाशनम् ।

प्रणामो दुःख शमनः तं नमामि हरिं परम् ॥ 

मैं उन 'हरि' को प्रणाम करता हूँ जिनका नाम संकीर्तन सभी पापों को समाप्त करता है और जिन्हें प्रणाम करने मात्र से सारे दुःखों का नाश हो जाता है।

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-अतुल कृष्णदास