Wednesday, October 24, 2018

शारदीय पूर्णिमा पर विशेष !! महारास !!



!! राधे राधे !!

शारदीय पूर्णिमा विशेष

श्रीमदभागवत कथा एक कल्पवृक्ष है जो मनुष्य की सभी इच्छा की पूर्ति कर सकता है। महर्षि वेदव्यास जी के द्वारा सत्रह पुराणों की रचना करने के उपरांत भी मन की व्याकुलता समाप्त नहीं हुई। तदुपरांत गुरु के वचनों में श्रद्धा रखते हुए मन को शांत रखने हेतु उन्होंने श्रीमद्भागवत पुराण की रचना की।श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कंध के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने इस दिन महारास रचाया था। ज्योतिषीय मतगणनुसार पूरे वर्ष के इसी दिन चंद्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है। हिंदू पंचांग के अनुसार यह दिन शरद पूर्णिमा एवं कौमुदी पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। इस दिन महिलाएं कौमुदी व्रत भी रखती है।

# हिंदू मान्यताओं के अनुसार इस दिन रात्रि में चंद्रमा की किरणों से अमृत छलकता है। ब्रज में इस दिन खीर बनाकर रात्रि में चांदनी में रखी जाती है एवं सुबह अगले दिन मे प्रसाद स्वरूप ग्रहण की जाती है।

#अन्य मान्यताओं के अनुसार इस दिन यदि कोई व्यक्ति चंद्रमा की किरणों की ओर देखकर सुई में धागा पिरोता है तो उसकी आंखों की रोशनी और तीव्र हो जाती है।

श्रीमद्भागवत कथा के अनुसार एक दिन मध्य रात्रि में सभी गोपियां भगवान श्रीकृष्ण जी की बंशी की नाद को सुनकर, अपनी सुध-बुध बिसराकर भगवान के सम्मुख खींची चली गयीं । इस महारास के समय भगवान की उम्र केवल सात वर्ष की थी। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण महारास में सभी गोपियों के मध्य अपने कई रूपों को प्रकट कर प्रत्येक गोपी के साथ रास करने लगते हैं। उधर सभी देवी-देवता भी उस रात इस महारास को देखने के लिए धरती पर उतरते हैं। जिसमें भगवान शिव महारास में सम्मिलित होने के लिए नारी वेश धर कर प्रकट होते हैं। भगवान के इसी स्वरूप को गोपेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है।

श्रीमद्भागवत कथा में ऐसा वर्णन आता है कि महारास के मध्य ब्रह्मा आदि देवताओं को अपने सम्मुख देखकर गोपियों के मन में एक मद (अहंकार) उत्पन्न हो जाता है। उनको यह अहंकार जाता है कि वह सबसे श्रेष्ठ है। कहा गया है कि जहां काम-मध-लोभ-मोह हो, वहां राम का क्या काम ? गोपियों का ऐसा स्व्भाव देखते ही भगवान अंतर्ध्यान हो जाते हैं।

भगवान श्री कृष्ण को अपने सम्मुख ना पाकर गोपियां विलाप करने लगती है। वह कहती हैं कि हे श्याम! हे गोविन्द! आप कहा हो? हे माधव! आप इस प्रकार हमें छोड़कर कहां चले गए हैं? विलाप करते-करते वे सभी भगवान से छमा-प्रार्थना करने लगी और राधा जी के अनुरोध करने पर सभी गोपियां गोपी-गीत  का पाठ करने लगीं। जो संस्कृत में निम्न प्रकार है:-

गोपीगीतम्

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः
     श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका-
     स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते १॥

शरदुदाशये साधुजातस-
     त्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका
     वरद निघ्नतो नेह किं वधः २॥

विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसा-
     द्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात्
वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया-
     दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ३॥

खलु गोपिकानन्दनो भवा-
     नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये
     सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ४॥

विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते
     चरणमीयुषां संसृतेर्भयात्
करसरोरुहं कान्त कामदं
     शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ५॥

व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां
     निजजनस्मयध्वंसनस्मित
भज सखे भवत्किङ्करीः स्म नो
     जलरुहाननं चारु दर्शय ६॥

प्रणतदेहिनां पापकर्शनं
     तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम्
फणिफणार्पितं ते पदांबुजं
     कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ७॥

मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया
     बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण
विधिकरीरिमा वीर मुह्यती-
     रधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ८॥

तव कथामृतं तप्तजीवनं
     कविभिरीडितं कल्मषापहम्
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं
     भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ९॥

प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं
     विहरणं ते ध्यानमङ्गलम्
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः
     कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि १०॥

चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून्
     नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम्
शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः
     कलिलतां मनः कान्त गच्छति ११॥

दिनपरिक्षये नीलकुन्तलै-
     र्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम्
घनरजस्वलं दर्शयन्मुहु-
     र्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि १२॥

प्रणतकामदं पद्मजार्चितं
     धरणिमण्डनं ध्येयमापदि
चरणपङ्कजं शन्तमं ते
     रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् १३॥

सुरतवर्धनं शोकनाशनं
     स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम्
इतररागविस्मारणं नृणां
     वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् १४॥

अटति यद्भवानह्नि काननं
     त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम्
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं ते
     जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् १५॥

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवा-
     नतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः
     कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि १६॥

रहसि संविदं हृच्छयोदयं
     प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम्
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते
     मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः १७॥

व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते
     वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम्
त्यज मनाक् नस्त्वत्स्पृहात्मनां
     स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् १८॥

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष
     भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते किंस्वित्
     कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः १९॥

इति श्रीमद्भागवत महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडायां गोपीगीतं नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥  -श्रीमद्भागवत पुराण

अतः इस प्रकार गोपियों की करुण पुकार सुनकर भगवान श्रीकृष्ण पुनः महारास में सम्मिलित हो गए।

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-अतुल कृष्ण