Saturday, March 2, 2019

महाशिवरात्रि पर विशेष

महाशिवरात्रि

महाशिवरात्र‍ि हिंदुओं का एक धार्मिक त्योहार है, जिसे हिंदू धर्म के प्रमुख देवता महादेव अर्थात भगवान शिवजी के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। कई स्थानों पर यह भी माना जाता है कि इसी दिन भगवान शिव का विवाह हुआ था। महाशिवरात्र‍ि का पर्व फाल्गुन मास में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाता है। इस दिन शिवभक्त एवं शिव में श्रद्धा रखने वाले लोग व्रत-उपवास रखते हैं और विशेष रूप से भगवान शिव की आराधना करते हैं। 

महाशिवरात्रि कथा 

शिव महापुराण के अनुसार- प्राचीन काल में एक जंगल में एक गुरुद्रुह नाम का एक शिकारी रहता था जो जंगली जानवरों का शिकार करता और अपने परिवार का भरण-पोषण किया करता था। एक बार शिव-रात्रि के दिन जब वह शिकार के लिए निकला, पर संयोगवश पूरे दिन खोजने के बाद भी उसे कोई शिकार नहीं मिला, उसके बच्चों, पत्नी एवं माता-पिता को भूखा रहना पड़ेगा इस बात से वह चिंतित हो गया, सूर्यास्त होने पर वह एक जलाशय के समीप गया और वहां एक घाट के किनारे एक पेड़ पर थोड़ा सा जल पीने के लिए लेकर, चढ़ गया क्योंकि उसे पूरी उम्मीद थी कि कोई-न-कोई जानवर अपनी प्यास बुझाने के लिए इस जलाशय के निकट ज़रूर आयेगा। यह सोचकर वह एक ‘बेल-पत्र’ के पेड़ पर चढ़ गया। उसी पेड़ के नीचे शिवलिंग भी था जो सूखे बेलपत्रों से ढके होने के कारण दिखाई नहीं दे रहा था।

रात का पहला प्रहर बीतने से पहले एक हिरणी वहां पर पानी पीने के लिए आई। उसे देखते ही शिकारी ने अपने धनुष पर बाण साधा। ऐसा करने में, उसके हाथ के धक्के से कुछ पत्ते एवं जल की कुछ बूंदे नीचे बने शिवलिंग पर गिरीं और अनजाने में ही शिकारी की पहले प्रहर की पूजा हो गयी। हिरणी ने जब पत्तों की खड़खड़ाहट सुनी, तो घबरा कर ऊपर की ओर देखा और भयभीत हो कर, शिकारी से कांपते हुए स्वर में बोली- ‘मुझे मत मारो |’ शिकारी ने कहा कि वह और उसका परिवार भूखा है इसलिए वह उसे नहीं छोड़ सकता। हिरणी ने वादा किया कि वह अपने बच्चों को अपने स्वामी को सौंप कर लौट आयेगी। तब वह उसका शिकार कर ले। शिकारी को उसकी बात का विश्वास नहीं हो रहा था। उसने फिर से शिकारी को यह कहते हुए अपनी बात का भरोसा करवाया कि जैसे सत्य पर ही धरती टिकी है, समुद्र मर्यादा में रहता है और झरनों से जल-धाराएँ गिरा करती हैं वैसे ही वह भी सत्य बोल रही है। क्रूर होने के बावजूद भी, शिकारी को उस पर दया आ गयी और उसने ‘जल्दी लौटना’ कहकर उस हिरनी को जाने दिया। 

थोड़ी ही देर बाद एक और हिरनी वहां पानी पीने आई, शिकारी सावधान हो गया, तीर सांधने लगा और ऐसा करते हुए, उसके हाथ के धक्के से फिर पहले की ही तरह थोडा जल और कुछ बेलपत्र नीचे शिवलिंग पर जा गिरे और अनायास ही शिकारी की दूसरे प्रहर की पूजा भी हो गयी। इस हिरनी ने भी भयभीत हो कर, शिकारी से जीवनदान की याचना की लेकिन उसके अस्वीकार कर देने पर, हिरनी ने उसे लौट आने का वचन, यह कहते हुए दिया कि उसे ज्ञात है कि जो वचन दे कर पलट जाता है, उसका अपने जीवन में संचित पुण्य नष्ट हो जाया करता है। उस शिकारी ने पहले की तरह, इस हिरनी के वचन का भी भरोसा कर उसे जाने दिया।

अब तो वह इसी चिंता से व्याकुल हो रहा था कि उन में से शायद ही कोई हिरनी लौट के आये और अब उसके परिवार का क्या होगा। इतने में ही उसने जल की ओर आते हुए एक हिरण को देखा, उसे देखकर शिकारी बड़ा प्रसन्न हुआ ,अब फिर धनुष पर बाण चढाने से उसकी तीसरे प्रहर की पूजा भी स्वतः ही संपन्न हो गयी लेकिन पत्तों के गिरने की आवाज़ से वह हिरन सावधान हो गया। उसने शिकारी को देखा और पूछा –“ तुम क्या करना चाहते हो ?” वह बोला-“अपने कुटुंब को भोजन देने के लिए तुम्हारा वध करूंगा।” वह मृग प्रसन्न हो कर कहने लगा – “मैं धन्य हूँ कि मेरा यह शरीर किसी के काम आएगा, परोपकार से मेरा जीवन सफल हो जायेगा पर कृपया कर अभी मुझे जाने दो ताकि मैं अपने बच्चों को उनकी माता के हाथ में सौंप कर और उन सबको धीरज बंधा कर यहाँ लौट आऊं।” शिकारी का ह्रदय, उसके पापपुंज नष्ट हो जाने से अब तक शुद्ध हो गया था इसलिए वह विनयपूर्वक बोला –‘ जो-जो यहाँ आये, सभी बातें बनाकर चले गये और अभी तक नहीं लौटे, यदि तुम भी झूठ बोलकर चले जाओगे, तो मेरे परिजनों का क्या होगा ?” अब हिरन ने यह कहते हुए उसे अपने सत्य बोलने का भरोसा दिलवाया कि यदि वह लौटकर न आये, तो उसे वह पाप लगे जो उसे लगा करता है जो सामर्थ्य रहते हुए भी दूसरे का उपकार नहीं करता। शिकारी ने उसे भी यह कहकर जाने दिया कि शीघ्र लौट आना।

रात्रि का अंतिम प्रहर शुरू होते ही उस शिकारी के हर्ष की सीमा न थी क्योंकि उसने उन सब हिरन-हिरनियों को अपने बच्चों सहित एक साथ आते देख लिया था। उन्हें देखते ही उसने अपने धनुष पर बाण रखा और पहले की ही तरह उसकी चौथे प्रहर की भी शिव-पूजा संपन्न हो गयी। अब उस शिकारी के शिव कृपा से सभी पाप भस्म हो गये इसलिए वह सोचने लगा-‘ओह, ये पशु धन्य हैं जो ज्ञानहीन हो कर भी अपने शरीर से परोपकार करना चाहते हैं लेकिन धिक्कार है मेरे जीवन को कि मैं अनेक प्रकार के कुकृत्यों से अपने परिवार का पालन करता रहा।’ अब उसने अपना बाण रोक लिया तथा मृगों से कहा की वे सब धन्य है तथा उन्हें वापिस जाने दिया। उसके ऐसा करने पर भगवान् शंकर ने प्रसन्न हो कर तत्काल उसे अपने दिव्य स्वरूप का दर्शन करवाया तथा उसे सुख-समृद्धि का वरदान देकर “गुह’’ नाम प्रदान किया। मित्रों, यही वह गुह था जिसके साथ भगवान् श्री राम ने मित्रता की थी।

महाशिवरात्रि व्रत का महत्व 

' फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि ।
शिवलिङ्गतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभ।।

अर्थात:- फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में आदिदेव भगवान शिव करोडों सूर्यों के समान प्रभाव वाले लिंग रूप में प्रकट हुए।

महाशिवरात्रि व्रत के नियम

महाशिवरात्रि का व्रत मनवांछित फल की प्राप्ति हेतु किया जाता है। व्रतधारी को ब्रह्म मुर्हत में उठना चाहिए साथ ही इस दिन ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। सुबह उठकर पानी में कुछ बूंद गंगा जल डालकर नहाना चाहिए। इस व्रत मे शिवजी पार्वती का पूजन करना चाहिए। 

१. सर्वप्रथम भगवान शिवजी और माता पार्वतीजी का अभिषेक जल या गंगाजल करें उसके उपरांत पंचामृत स्नान गाय का कच्चा दूध, दही, घी, शहद, चने की दाल, गुड़, काले तिल, आदि कई सामग्रियों से अभिषेक करना चाहिए और फिर पुनः जल या गंगाजल से शुद्धोदक स्नान करना चाहिए।

२. तत्पश्चात भगवान को सिंदूर एवं चावल से तिलक करना चाहिए।

३. तत्पश्चात श्वेत पुष्प, बिल्वपत्र, धतूरा, भाँग एवं बेर आदि अर्पण कर पूजन करना चाहिए।

४. तदुपरांत भगवान शिव का पंचाक्षरी मंत्र "ऊँ नमः शिवाय" अथवा महामृत्युंजय मंत्र का जाप करना चाहिए।

५. शिव-पार्वती की पूजा के बाद सावन के सोमवार की व्रत कथा सुननी चाहिए।

६. भगवान शिवजी आरती करने के बाद भोग लगाएं और घर परिवार में बांटने के पश्चात स्वयं ग्रहण करें।

७. पूजन के उपरांत ब्राह्मण (आचार्य, विप्र, द्विज, द्विजोत्तम) एवं निर्धन व्यक्ति को भोजन एवं दान-दक्षिणा देकर विदा करना चाहिए।

८. आप इस व्रत मे फलाहार नियम रख सकते हैं। परन्तु याद रखें केवल एक समय ही भोजन करना हैं।

इस प्रकार श्रद्धापूर्वक व्रत करने से भगवान भोलेनाथ एवं माता पार्वती प्रसन्न होकर मनवांछित फल देते हैं।

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-अतुल कृष्ण

कुंभ पर विशेष (आस्था, विश्वास एवं संस्कृतियों का संगम)

कुंभ

आस्था, विश्वास एवं संस्कृतियों के मिलन का पर्व है “कुंभ”। कुंभ का शाब्दिक अर्थ कलश से है, अर्थात् पवित्र कलश या अमृत कलश। कलश के मुख को भगवान विष्णु, गर्दन को रूद्र, आधार को ब्रम्हा, बीच के भाग को समस्त देवियों और अंदर के जल को संपूर्ण सागर का प्रतीक माना जाता है। यह चारों वेदों का संगम है।

इस प्रकार इसे सभ्यता का संगम भी कहा जाता है। कुम्भ ऊर्जा का स्त्रोत है। यह मनुष्य को पाप, पुण्य और प्रकाश, अंधकार से अवगत कराता है।

कुम्भ मेला भारत एवं विश्व के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक धरोहर का एक केन्द्र माना जाता है और करोड़ों तीर्थयात्री इसी आस्था से यहाँ इस पावन पर्व के दौरान पधारते हैं। कुम्भ वैश्विक पटल पर शांति और सामंजस्य का एक प्रतीक है। वर्ष 2017 में यूनेस्को द्वारा कुम्भ को ‘‘मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत’’ की प्रतिनिधि सूची पर मान्यता प्रदान की गयी है। अध्यात्मिकता का ज्ञान समृद्ध करते हुए, ज्योतिष, खगोल विज्ञान, कर्मकाण्ड, परंपरा और सामाजिक एवं सांस्कृतिक पद्धतियों एवं व्यवहार को प्रयागराज का कुम्भ प्रदर्शित करता है।

पौराणिक मान्यता

श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार देवासुर संग्राम के उपरांत दोनों पक्ष (देव एवं दानव) समुद्र मंथन के लिए राजी हुए हो गए। इस प्रकार समुद्र मंथन के लिए समुद्र में मंदराचल को स्थापित कर वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया एवं स्वयं भगवान श्रीविष्णु कच्छप अवतार लेकर मन्दराचल पर्वत को अपने पीठ पर रखकर उसका आधार बन गये। तत्पश्चात दोनों पक्ष अमृत-प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन करने लगे।
अमृत पाने की इच्छा से सभी बड़े जोश और वेग से मंथन कर रहे थे। सहसा तभी समुद्र में से कालकूट नामक भयंकर विष निकला। उस विष की अग्नि से दसों दिशाएँ जलने लगीं। समस्त प्राणियों में हाहाकार मच गया। तब देवताओं ने भगवान शिवजी की स्तुति की। जिसके फलस्वरूप भगवान शिवजी ने विष को ग्रहण किया और नीलकंठ कहलाये। समुद्र मंथन से क्रमशः चौदह: रत्न निकलें:-

1. कालकूट (हलाहल) 2. ऐरावत 3. कामधेनु 4. उच्चैःश्रवा 5. कौस्तुभमणि 6. कल्पवृक्ष 7. रम्भा नामक अप्सरा 8. लक्ष्मी 9. वारुणी मदिरा 10. चन्द्रमा 11. शारंग धनुष 12. शंख 13. गंधर्व 14. अमृत

एक सन्दर्भ में एक श्लोक प्रचलित हैं:-

लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुराधन्वन्तरिश्चन्द्रमाः। 
गावः कामदुहा सुरेश्वरगजो रम्भादिदेवांगनाः। 
अश्वः सप्तमुखो विषं हरिधनुः शंखोमृतं चाम्बुधेः।
रत्नानीह चतुर्दश प्रतिदिनं कुर्यात्सदा मंगलम्।

इस प्रकार मंथन से प्राप्त रत्नों को दोनों पक्षों में परस्पर बाँट लिया गया परन्तु जब धन्वन्तरि ने अमृत कलश देवताओं को दे दिया तो तदोउपरांत पुनः युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई। तब भगवान् विष्णु जी ने स्वयं मोहिनी रूप धारकर सबको अमृत-पान कराने की बात कही एवं अमृत कलश का दायित्व इंद्र-पुत्र जयंत को सौप दिया।

अमृत-कलश को प्राप्त कर जब जयंत दानवों से अमृत की रक्षा करने हेतु भागे तभी इसी क्रम में अमृत की बूंदे पृथ्वी पर चार स्थानों पर गिरी- हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन। क्योंकि भगवान विष्णु की आज्ञा से सूर्य, चन्द्र, शनि एवं बृहस्पति भी अमृत कलश की रक्षा कर रहे थे और विभिन्न राशियों (सिंह, कुम्भ एवं मेष) में विचरण के कारण वे सभी भी कुम्भ पर्व के द्योतक बने।

धार्मिक मान्यताएँ

सांदीपनि मुनि चरित्र स्तोत्र के अनुसार, महर्षि सांदीपनि काशी में रहते थे। एक बार प्रभास क्षेत्र से लौटते हुए वे उज्जैन आए। उस समय यहां कुंभ मेले का समय था। लेकिन उज्जैन में भयंकर अकाल के कारण साधु-संत बहुत परेशान हो गये । अतः महर्षि सांदीपनि ने तपस्या कर भगवान शिव जी को प्रसन्न किया, जिससे प्रभाव से अकाल समाप्त हो गया। साथ ही भगवान शिव जी ने महर्षि सांदीपनि से इसी स्थान पर रहकर विद्यार्थियों को शिक्षा देने के लिए कहा। आज भी उज्जैन में महर्षि सांदीपनि का आश्रम स्थित है।

अर्धकुंभ

अर्ध का अर्थ है आधा। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ का आयोजन होता है। 

सिंहस्थ कुंभ 

सिंहस्थ का संबंध सिंह राशि से है। सिंह राशि में बृहस्पति एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर उज्जैन में कुंभ का आयोजन होता है। इसके अलावा सिंह राशि में बृहस्पति के प्रवेश होने पर कुंभ पर्व का आयोजन गोदावरी के तट पर नासिक में होता है।

कुंभ में स्नान का महत्व

सहस्त्र कार्तिके स्नानं माघे स्नान शतानि च।
वैशाखे नर्मदाकोटिः कुंभस्नानेन तत्फलम्।।
अश्वमेघ सहस्त्राणि वाजवेयशतानि च।
लक्षं प्रदक्षिणा भूम्याः कुंभस्नानेन तत्फलम्।

अर्थ- कुंभ में किए गए एक स्नान का फल कार्तिक मास में किए गए हजार स्नान, माघ मास में किए गए सौ स्नान व वैशाख मास में नर्मदा में किए गए करोड़ों स्नानों के बराबर होता है। हजारों अश्वमेघ, सौ वाजपेय यज्ञों तथा एक लाख बार पृथ्वी की परिक्रमा करने से जो पुण्य मिलता है, वह कुंभ में एक स्नान करने से प्राप्त हो जाता है।

ज्योतिषीय महत्व

कुम्भपर्व पौराणिक आख्यानों से साथ-साथ खगोलीय विज्ञान ही है क्योंकि ग्रहों की विशेष स्थितियाँ के आधार पर ही कुम्भपर्व के काल का निर्धारण होता है।  कुम्भपर्व का योग सूर्य, चंद्रमा, गुरू और शनि के सम्बध में सुनिश्चित होता है।

स्कन्द पुराण अनुसार-

चन्द्रः प्रश्रवणाद्रक्षां सूर्यो विस्फोटनाद्दधौ।
दैत्येभ्यश्र गुरू रक्षां सौरिर्देवेन्द्रजाद् भयात्।।
सूर्येन्दुगुरूसंयोगस्य यद्राशौ यत्र वत्सरे।
सुधाकुम्भप्लवे भूमे कुम्भो भवति नान्यथा।।

अर्थात्:- जिस समय अमृतपूर्ण कुम्भ को लेकर देवताओं एवं दैत्यों में संघर्ष हुआ उस समय चंद्रमा ने उस अमृतकुम्भ से अमृत के छलकने से रक्षा की और सूर्य ने उस अमृत कुम्भ के टूटने से रक्षा की। देवगुरू बृहस्पति ने दैत्यों से तथा शनि ने इंद्रपुत्र जयन्त की रक्षा की। इसी लिए उस देव दैत्य कलह में जिन-जिन स्थानों में (हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन) जिस-जिस दिन सुधा कुम्भ छलका है उन्हीं-उन्हीं स्थलों में उन्हीं तिथियों में कुम्भपर्व होता है। देव-दैत्यों का युद्ध इस अमृत कुम्भ को लेकर 12 दिन तक 12 स्थानों में चला और उन 12 स्थलों में सुधा कुम्भ से अमृत छलका जिनमें पूर्वोक्त चार स्थल मृत्युलोक में है शेष आठ इस मृत्युलोक में न होकर अन्य लोकों में (स्वर्ग आदि लोकों में) माने जाते हैं। 12 वर्ष के मान का देवताओं का बारह दिन होता है। इसीलिए 12वें वर्ष ही सामान्यतया प्रत्येक स्थान में कुम्भपर्व की स्थिति बनती है।

वृष राशि में गुरू मकर राशि में सूर्य तथा चंद्रमा माघ मास में अमावस्या के दिन कुम्भपर्व की स्थिति देखी गयी है। इसलिए प्रयाग के कुम्भपर्व के विषय में- "वृषराषिगतेजीवे" के समान ही "मेषराशिगतेजीवे" ऐसा उल्लेख मिलता है।
कुम्भपर्वों का जो ग्रह योग प्राप्त होता है वह लगभग सभी जगह सामान्य रूप से बारहवे वर्ष प्राप्त होता है। परन्तु कभी-कभी ग्यारहवें वर्ष भी कुम्भपर्व की स्थिति देखी जाती है। यह विषय अत्यन्त विचारणीय हैं, सामान्यतया सूर्य चंद्र की स्थिति को प्रतिवर्ष चारों स्थलों में स्वतः बनती है। उसके लिए प्रयाग में कुम्भपर्व के समय वृष के गुरू रहते हैं जिनका स्वामी शुक्र है। शुक्रग्रह ऐश्वर्य भोग एवं स्नेह का सम्वर्धक है। गुरू ग्रह के इस राशि में स्थित होने से मानव के वैचारिक भावों में परम सात्विकता का संचार होता है जिससे स्नेह, भोग एवं ऐश्वर्य की सम्प्राप्ति के विचार में जो सात्विकता प्रवाहित होती है उससे उनके रजोगुणी दोष स्वतः विलीन होते हैं। तथैव मकर राशिगत सूर्य समस्त क्रियाओं में पटुता एवमेव मकर राशिस्थ चंद्र परम ऐश्वर्य को प्राप्त कराता है। फलतः ज्ञान एवं भक्ति की धारा स्वरूप गंगा एवं यमुना के इस पवित्र संगम क्षेत्र में चारो पुरूषार्थों की सिद्धि अल्पप्रयास में ही श्रद्धालु मानव के समीपस्थ दिखाई देती है।

प्रत्येक ग्रह अपने-अपने राशि को एक सुनिश्चित समय में भोगता है जैसे सूर्य एक राशि को 30 दिन 26 घडी 17 पल 5 विपल का समय लेता है एवं चंद्रमा एक राशि का भाग लगभग 2.5 दिन में पूरा करता है तथैव बृहस्पति एक राशि का भोग 361 दिन 1 घडी 36 पल में करता है। स्थूल गणना के आधार पर वर्ष भर का काल बृहस्पति का मान लिया जाता है। किन्तु सौरवर्ष के अनुसार एक वर्ष में चार दिन 13 घडी एवं 55 पल का अन्तर बार्हस्पत्य वर्ष से होता है जो 12 वर्ष में 50 दिन 47 घडी का अन्तर पड़ता है और यही 84 वर्षों में 355 दिन 29 घडी का अन्तर बन जाता है। इसीलिए 50वें वर्ष जब कुम्भपर्व आता है तब वह 11वें वर्ष ही पड़ जाता है।

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-अतुल कृष्ण