Tuesday, February 28, 2023

फाल्गुन पूर्णिमा (होलिका दहन) व्रत एवं पूजन विधि

फाल्गुन पूर्णिमा (होलिका दहन) पूजन

सनातन धर्म में फाल्गुन पूर्णिमा का विशेष महत्व माना गया है। मान्यता है कि इस दिन माता लक्ष्मी का भी धरती पर अवतरण हुआ था। फाल्गुन मास रंगों और उमंगों का महीना होता है। फाल्गुन महीना हिंदू वर्ष का अंतिम महीना होता है। इस पूर्णिमा के बाद ही हिंदू नव वर्ष का आगाज होता है।

इस दिन मां लक्ष्मी की पूजा करने से आर्थिक स्थिति मजबूत होती है क्योंकि मां लक्ष्मी जी को सुख समृद्धि की देवी माना जाता है। इस दिन श्री सुक्तम का पाठ करना बहुत शुभ माना जाता है। माघ की पूर्णिमा पर होली का दंड रोप दिया जाता है। इसके लिए नगर से बाहर जंगल में शाखा सहित वृक्ष ला रहे हैं और उसे गन्धादि से पूज कर पश्चिम में दृष्टि दे रहे हैं। इसी को 'होली', 'होलीदंड', 'होली का डंडा', 'डंडा' या 'प्रहलाद' कहते हैं। इस अवसर पर लकड़ियां और कंडों आदि का ग्रहण होलिका पूजन किया जाता है।

अयं होलीमहोत्सवः भवत्कृते भवत्परिवारकृते च

क्षेमस्थैर्य-आयुः-आरोग्य-ऐश्वर्य-अभिवृद्घिकारकः भवतु।।

।।होलिकाया: हार्दिकशुभाशयाः।।

-होली का यह त्योहार आपके और आपके परिवार के लिए है यह आपकी भलाई, स्थिरता, दीर्घायु, स्वास्थ्य और धन में वृद्धि करे। होली की हार्दिक शुभकामनाएं।

पूजन सामग्री

पूजन सामग्री के लिए एक थाल में गुलरी (बड़गुल्ले की मालाएं), चौमुखा दीपक, जल का लोटा, पिसी हल्दी या रोली, बताशे, नारियल, फूल, गुलाल, गुड़ की ढेली, शरद सूत की कुकड़ी, आठ पूरी, हलवा या आटा, दक्षिणा , गेहूं, जौ, चना की बालियां, एक कच्चा पापड़ रख लें।

फाल्गुन पूर्णिमा (होलिका दहन) व्रत एवं पूजन विधि

फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होलिका का पूजन मुख्य रूप से किया जाता है और भगवान नरसिंह की पूजा की जाती है।

नारद पुराण के अनुसार होलिका दहन के अगले दिन (रंग वाली होली के दिन) प्रात: काल उठकर आवश्यक नित्यक्रिया से निवृत्त होकर पितरों और देवताओं के लिए तर्पण-पूजन करना चाहिए। घर के आंगन को गोबर से लीपकर उसमें एक चौकोर मण्डल बनाना चाहिए। 

  • ईंटें या मिट्टी से सूक्ष्म वेदीनुमा बना लें और समझौते का चौक पूर कर थोड़ा गुलाल छिड़क दें। इसमें शामिल हैं प्रह्लाद के प्रतीक के रूप में एक डण्डा गाढ़ देना और चारों ओर गूलरी की माला व उपले लगना । उसके उपरांत सूखी लकड़ी व गाय के गोबर के उपलो से होलीका सजाएं।

  • अब होलिका के पास पूर्व या उत्तर दिशा में मुख करके बैठें। यथाशक्ति संकल्प लेकर गोत्र-नामादि का उच्चारण कर पूजा करें।

  • सबसे पहले गणेश व गौरी इत्यादि का पूजन करें।

  • ॐ होलिकायै नम: से होली का पूजन करें।

  • ॐ प्रहलादाय नम: से प्रहलाद का पूजन करें।

  • ॐ नृसिंहाय नम: से भगवान नृसिंह का पूजन करें।

  • इसके उपरांत भगवान नरसिंह का ध्यान करने के बाद होलिका पर रोली, चावल, फूल, बताशे अर्पित किये जाते हैं और इसके बाद होलिका पर प्रहलाद का नाम लेकर पुष्प अर्पित किये जाते हैं। भगवान नरसिंह का नाम लेते हुए पांच अनाज चढ़ाये जाते हैं।

  • इसके बाद बड़गुल्ले की 4 मालाएं लें, एक पितरों के नाम, एक हनुमान जी के लिए, एक शीतला माता के लिए और एक अपने परिवार की होलिका को समर्पित करें।

  • अब होलिका की 3 या 7 बार परिक्रमा करते हुए कच्चा सूत या मौली को होलिका के चारों तरफ लपेट दिया जाता है।

  • अब होलिका पर गुलाल व रोली चढ़ाएं। इसके बाद समस्त पूजा सामग्री (फूल, साबुत हल्‍दी, साबुत मूंग, बताशे और 5 या फिर 7 प्रकार के अनाज, मिठाइयां और फल) होलिका को समर्पित कर दें।

  • लोटे का जल चढ़ाकर कहें- ॐ ब्रह्मार्पणमस्तु। फिर अपनी मनोकामनाएं कह दें और गलतियों की क्षमा मांग लें।

  • जब पूजन का समय हो मोहल्ले की होली में थोड़ी सी अग्नि लाकर घर की होली जलाएं। अग्नि सर्वेक्षण ही डण्डा को निकाल लेता है क्योंकि वह भक्त प्रह्लाद का रूप मानता है।

  • होलिका दहन होने के बाद होलिका में जिन वस्तुओं की आहुति दी जाती है, उनमें कच्चे आम, नारियल, भुट्टे या सप्तधान्य, चीनी के बने खिलौने, नई फसल का कुछ भाग प्रमुख है. होलिका के आग में गेंहू की बालियों को सेंक लें। बाद में उनको खा लें, इससे आप निरोग रहेंगे। साथ ही घर के बुजुर्गों के पैरों पर गुलाल लगाकर आशीर्वाद लिया जाता है।

  • दूसरे दिन होली की भस्म को अपने मस्तक पर स्थापना से सभी जाम की शान्ति होती है ।

होलिका दहन करने से सभी अनिष्ट दूर हो जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन जो मनुष्य मिश्रित मन से हिंडोले में झूते हुए बालकृष्ण के दर्शन करता है, वह दृढ़ संकल्प ही वैकुण्ठ में वास करता है ।

हिन्दु धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार, होलिका दहन, जिसे होलिका दीपक और छोटी होली के नाम से भी जाना जाता है, को सूर्यास्त के पश्चात प्रदोष के समय, जब पूर्णिमा तिथि व्याप्त हो, करना चाहिये। भद्रा, जो पूर्णिमा तिथि के पूर्वाद्ध में व्याप्त होती है, के समय होलिका पूजा और होलिका दहन नहीं करना चाहिये। सभी शुभ कार्य भद्रा में वर्जित हैं।

फाल्गुन पूर्णिमा व्रत की कथा

फाल्गुन पूर्णिमा व्रत की तो अनेक कथाएं है लेकिन नारद पुराण की कथा को सबसे अधिक महत्व का माना जाता है। नारद पुराण के अनुसार फाल्गुन पूर्णिमा की कथा राक्षस हिरण्यकश्यपु की बहन राक्षसी होलिका के दहन की कथा है। पौराणिक कथाओं के अनुसार जब राजा हिरण्यकश्यप ने यह देखा कि उसका पुत्र उसकी बात मानने की जगह भगवान विष्णु की पूजा करता है तो उसने गुस्से में अपनी बहन होलिका को प्रहलाद के साथ अग्नि में बैठने का हुक्म दिया ताकि प्रहलाद अग्नि में भस्म हो जाए।

हिरण्यकश्यपु के कहने पर होलिका प्रहलाद को आग में जलाने के लिए उसे अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठ जाती है। कहते हैं कि होलिका को यह वरदान मिला था कि अग्नि उसे जला नहीं  सकती है। लेकिन भगवान विष्णु  ने अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा  की और उसे आग में जलने से बचा लिया। वही होलिका अग्नि में जलकर राख हो गई। मान्यता है की बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के तौर पर फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होलिका दहन किया जाता है।

फाल्गुन पूर्णिमा के अनुष्ठान:-
  • फाल्गुन पूर्णिमा पर भक्तों को सुबह जल्दी उठने और पवित्र नदियों में पवित्र स्नान करने की आवश्यकता होती है क्योंकि ऐसा करना बहुत शुभ और भाग्यशाली माना जाता है।
  • पवित्र स्नान करने के बाद, भक्तों को मंदिर में या कार्यशाला या घर में विष्णु भगवान की पूजा करनी चाहिए।
  • विष्णु पूजा का अनुष्ठान करने के बाद सत्यनारायण कथा का पाठ करना चाहिए।
  • भक्तों को भगवान विष्णु के मंदिर में जाना चाहिए, पूजा और प्रार्थना करनी चाहिए।
  • गायत्री मंत्र और ओम नमो नारायण मंत्र 1008 बार जाप करना बहुत शुभ माना जाता है।
  • लोगों को फाल्गुन पूर्णिमा पर अधिक से अधिक दान करना चाहिए। भोजन, कपड़े और पैसे जरूरतमंदों को दान करने चाहिए।
होलिका दहन के मुहूर्त के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिये –

भद्रा रहित, प्रदोष व्यापिनी पूर्णिमा तिथि, होलिका दहन के लिये उत्तम मानी जाती है। यदि भद्रा रहित, प्रदोष व्यापिनी पूर्णिमा का अभाव हो परन्तु भद्रा मध्य रात्रि से पहले ही समाप्त हो जाए तो प्रदोष के पश्चात जब भद्रा समाप्त हो तब होलिका दहन करना चाहिये। यदि भद्रा मध्य रात्रि तक व्याप्त हो तो ऐसी परिस्थिति में भद्रा पूँछ के दौरान होलिका दहन किया जा सकता है। परन्तु भद्रा मुख में होलिका दहन कदाचित नहीं करना चाहिये। धर्मसिन्धु में भी इस मान्यता का समर्थन किया गया है। धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार भद्रा मुख में किया होली दहन अनिष्ट का स्वागत करने के जैसा है जिसका परिणाम न केवल दहन करने वाले को बल्कि शहर और देशवासियों को भी भुगतना पड़ सकता है। किसी-किसी साल भद्रा पूँछ प्रदोष के बाद और मध्य रात्रि के बीच व्याप्त ही नहीं होती तो ऐसी स्थिति में प्रदोष के समय होलिका दहन किया जा सकता है। कभी दुर्लभ स्थिति में यदि प्रदोष और भद्रा पूँछ दोनों में ही होलिका दहन सम्भव न हो तो प्रदोष के पश्चात होलिका दहन करना चाहिये।

होलिका दहन का मुहूर्त किसी त्यौहार के मुहूर्त से ज्यादा महवपूर्ण और आवश्यक है। यदि किसी अन्य त्यौहार की पूजा उपयुक्त समय पर न की जाये तो मात्र पूजा के लाभ से वञ्चित होना पड़ेगा परन्तु होलिका दहन की पूजा अगर अनुपयुक्त समय पर हो जाये तो यह दुर्भाग्य और पीड़ा देती है।


होली की ज्वाला में व्हीट, जौ व चने की बालियां क्यों भूंते हैं?

फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा नव धान्य (जौ, गेहूं, चने) को यज्ञ रूपी भगवान को समर्पित करने का दिन है। इस पर्व को 'नवन्नेष्टि यज्ञ पर्व' भी कहा जाता है। होली के अवसर पर नए धान्य (जौ, गेहं, चने) की जमीनें पक कर तैयार हो जाती हैं। हिन्दू धर्म में खेत से आए नए अन्न को यज्ञ में हवन करके प्रसाद चयन की बैंकरीकरण है। उस अन्न को 'होला' कहते हैं।

अत: फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को उपले आदि समेकन कर में यज्ञ की तरह अग्नि स्थापित की जाती है जिसे 'होलिका जनाना' कहते हैं। फिर रोली, मिठाई से पूजन करके हवन के चरू के रूप में जौ, गेहूँ, चने की बालियों को आहुति के रूप में होली की ज्वाला में सेकते हैं। होली की तीन परिक्रमा करते हैं और सिकीं हुई बालियों को घर लाकर प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। इस तरह होली के रूप में 'नवन्नेष्टि यज्ञ' संपन्न होता है। इस तरह नया अन्न का यज्ञ करने से मनुष्य हृष्ट-पुष्ट व बलवान बनता है।

इस विधि से फाल्गुनोत्सव मनाने से लोगों की सभी आधि-व्याधि का नाश हो जाता है और वह पुत्र, पौत्र व धन-धान्य से संपन्न होता है।

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-अतुल कृष्णदास

Monday, February 27, 2023

होलाष्टक

होलाष्टक क्या है?

होलाष्टक के शाब्दिक अर्थ पर जाएं तो होला + अष्टक अर्थात होली से पूर्व के आठ दिन, जो दिन होता है, वह होलाष्टक कहलाता है। सामान्य रुप से देखा जाये तो होली एक दिन का पर्व न होकर पूरे नौ दिनों का त्यौहार है। 

होली के 8 दिन पूर्व फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी से होलाष्टक लग जाता है, जो पूर्णिमा तक जारी रहता है. होलाष्टक के इन 8 दिनों को वर्ष का सबसे अशुभ समय माना जाता है। इस दौरान सभी शुभ मांगलिक कार्य रोक दिए जाते है यह दुलहंडी पर रंग खेलकर खत्म होता है।

अग्ने॒ नय॑ सु॒पथा॑ रा॒ये अ॒स्मान्। (बृहदारण्यक-उपनिषद् 5.15.1) (ईश-उपनिषद 18) (ऋग्वेदः 1.189.1) (यजुर्वेदः 5.36)

agne naya supathā rāye asmān

हिंदी अनुवाद:

हे अग्नि, सभी प्रकार के ज्ञान को जानकर, हमें अच्छे मार्ग से धन की ओर ले चलो।

English Translation:

O Agni, knowing all kinds of knowledge, lead us to wealth in good ways.

होलाष्टक का महत्व

ज्योतिषी शास्त्री के अनुसार होली के पूर्व होलाष्टक का अपना अलग महत्व है।होलाष्टक की अवधि भक्ति की शक्ति का प्रभाव बताती है. इस अवधि में तप करना ही अच्छा रहता है। होलाष्टक को नवनेष्ट यज्ञ की शुरूआत का कारक भी माना जाता है। इस दिन से सभी प्रकार के नये फलों, अन्न, चना, गन्ना आदि का प्रयोग शुरू कर दिया जाता है। इस वर्ष जिन लड़कियों की शादी हुई हो, उन्हे भी अपने ससुराल में पहली होली नहीं देखनी चाहिये। होलाष्टक शुरू होने पर जमीन पर पेड़ की शाखाएं लगाई जाती हैं। इसमें रंग-बिरंगे कपड़ों के टुकड़े बांध देते हैं। इसे भक्त प्रहलाद का प्रतीक माना जाता है। मान्यताओं के अनुसार, जिस क्षेत्र में होलिका दहन के लिए पेड़ की शाखा को जमीन पर लगाते हैं, उस क्षेत्र में होलिका दहन तक कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है।

होलाष्टक कैसे मनाएं?

  • प्रचलित मान्यता के अनुसार होलाष्टक के शुरुआती दिन में ही होलिका दहन के लिए 2 डंडे स्थापित किये जाते हैं। जिसमें से एक को होलिका तथा दूसरे को प्रह्लाद माना जाता है। 
  • पूजन करने के लिये होली से आठ दिन पहले होलिका दहन वाले स्थान को गंगाजल से शुद्ध कर उसमें सूखे उपले, सूखी लकडी, सूखी ख़ास व होली का डंडा स्थापित कर दिया जाता है. जिस दिन यह कार्य किया जाता है, उस दिन को होलाष्टक प्रारम्भ का दिन भी कहा जाता है। 
  • जिस गांव, क्षेत्र या मौहल्ले के चौराहे पर पर यह होली का डंडा स्थापित किया जाता है। 
  • होली का डंडा स्थापित होने के बाद संबन्धित क्षेत्र में होलिका दहन होने तक कोई शुभ कार्य संपन्न नहीं किया जाता है। 
  • सबसे पहले इस दिन, होलाष्टक शुरु होने वाले दिन होलिका दहन स्थान का चुनाव किया जाता है।
  • इस दिन इस स्थान को गंगा जल से शुद्ध कर, इस स्थान पर होलिका दहन के लिये लकडियां एकत्र करने का कार्य किया जाता है। 
  • इस दिन जगह-जगह जाकर सूखी लकडियां विशेष कर ऐसी लकडियां जो सूखने के कारण स्वयं ही पेडों से टूटकर गिर गई हों, उन्हें एकत्र कर चौराहे पर एकत्र कर लिया जाता है। 
  • होलाष्टक से लेकर होलिका दहन के दिन तक प्रतिदिन इसमें कुछ लकडियां डाली जाती है। 
  • इस प्रकार होलिका दहन के दिन तक यह लकडियों का बड़ा ढेर बन जाता है। 
  • इस दिन से होली के रंग फिजाओं में बिखरने लगते हैं। अर्थात होली की शुरुआत हो जाती है। बच्चे और बड़े इस दिन से हल्की फुलकी होली खेलनी प्रारम्भ कर देते हैं।

होलाष्टक में क्या नहीं  करना चाहिए?

होली से पूर्व के 8 दिनों में भूलकर भी विवाह, बच्चे का नामकरण या मुंडन संस्कार न करें, भवन का निर्माण कार्य प्रारंभ न कराएं, कोई यज्ञ या हवन अनुष्ठान करने की सोच रहे हैं तो उसे होली के बाद कराएं। होलाष्टक के समय में नई नौकरी ज्वॉइन करने से बचें अगर होली के बाद का समय मिल जाए तो अच्छा होगा अन्यथा किसी ज्योतिषाचार्य से मुहूर्त दिखा लें। संभव हो तो होलाष्टक के समय में भवन, वाहन आदि की खरीदारी से बचें. होलाष्टक के दौरान शगुन के तौर पर रुपए आदि न दें।होलाष्टक शुरू होने के साथ ही 16 संस्कार जैसे गर्भाधान, विवाह, पुंसवन (गर्भाधान के तीसरे माह किया जाने वाला संस्कार), नामकरण, चूड़ाकरण, विद्यारंभ, गृह प्रवेश, गृह निर्माण, गृह शांति, हवन-यज्ञ कर्म आदि नहीं किए जाते। इन दिनों शुरु किए गए कार्यों से कष्ट की प्राप्ति होती है। इन दिनों हुए विवाह से रिश्तों में अस्थिरता आजीवन बनी रहती है अथवा टूट जाती है। घर में नकारात्मकता, अशांति, दुःख एवं क्लेष का वातावरण रहता है। वहीं होलाष्टक में शुभ कार्य न करने की ज्योतिषीय वजह भी बताई जाती है। ज्योतिष का कहना है कि इन दिनों में नेगेटिव एनर्जी काफी हैवी रहती है। होलाष्टक के अष्टमी तिथि से आरंभ होता है। अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक अलग-अलग ग्रहों की नेगेटिविटी काफी हाई रहती है। जिस कारण इन दिनों में शुभ कार्य न करने की सलाह दी जाती है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार होलाष्टक मे सभी शुभ कार्य करना वर्जित रहते हैं क्‍योंक‍ि इन आठ दिवस में 8 ग्रह उग्र रहते है इन आठ दिवसों में अष्टमी को चंद्रमा,नवमी को सूर्य,दशमी को शनि,एकादशी को शुक्र,द्वादशी को गुरु, त्रयोदशी को बुध, चतुर्दशी को मंगल, और पूर्णिमा को राहू उग्र रहते हैं इसलिए इस अवधि में शुभ कार्य करने वर्जित है।

होलाष्‍टक की कथा

कथा 1- श्री शिव पुराण के अनुसार शिवजी ने अपनी तपस्या भंग करने का प्रयास करने पर कामदेव को फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि को भस्म कर दिया था। कामदेव प्रेम के देवता माने जाते हैं, इनके भस्म होने के कारण संसार में शोक की लहर फैल गई थी। जब कामदेव की पत्नी रति द्वारा भगवान शिव से क्षमा याचना की गई, तब शिवजी ने कामदेव को पुनर्जीवन प्रदान करने का आश्वासन दिया। इसके बाद लोगों ने खुशी मनाई। होलाष्टक का अंत धुलेंडी के साथ होने के पीछे एक कारण यह माना जाता है।

कथा 2- श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हरिण्यकशिपु ने अपने पुत्र भक्त प्रह्लाद को भगवद् भक्ति से हटा दिया और हरिण्यकशिपु को ही भगवान की तरह पूजन के लिए कई शोधन दी लेकिन जब किसी भी तरह की बात से बात नहीं बनी तो होली से ठीक आठ दिन पहले उसने प्रह्लाद को मारने का प्रयास किया शुरुआत कर दिए गए थे। लगातार आठ दिनों तक जब भगवान अपने भक्त की रक्षा कर रहे होते हैं तो होलिका के अंत से यह चिल्ली थमा। इसलिए आज भी भक्त इन आठ दिनों को अशुभ मानते हैं। उनका यकीन है कि इन दिनों शुभ कार्य करने से उनमें से कुछ आने की संख्या अधिक रहती है।

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-अतुल कृष्णदास