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Tuesday, February 28, 2023

फाल्गुन पूर्णिमा (होलिका दहन) व्रत एवं पूजन विधि

फाल्गुन पूर्णिमा (होलिका दहन) पूजन

सनातन धर्म में फाल्गुन पूर्णिमा का विशेष महत्व माना गया है। मान्यता है कि इस दिन माता लक्ष्मी का भी धरती पर अवतरण हुआ था। फाल्गुन मास रंगों और उमंगों का महीना होता है। फाल्गुन महीना हिंदू वर्ष का अंतिम महीना होता है। इस पूर्णिमा के बाद ही हिंदू नव वर्ष का आगाज होता है।

इस दिन मां लक्ष्मी की पूजा करने से आर्थिक स्थिति मजबूत होती है क्योंकि मां लक्ष्मी जी को सुख समृद्धि की देवी माना जाता है। इस दिन श्री सुक्तम का पाठ करना बहुत शुभ माना जाता है। माघ की पूर्णिमा पर होली का दंड रोप दिया जाता है। इसके लिए नगर से बाहर जंगल में शाखा सहित वृक्ष ला रहे हैं और उसे गन्धादि से पूज कर पश्चिम में दृष्टि दे रहे हैं। इसी को 'होली', 'होलीदंड', 'होली का डंडा', 'डंडा' या 'प्रहलाद' कहते हैं। इस अवसर पर लकड़ियां और कंडों आदि का ग्रहण होलिका पूजन किया जाता है।

अयं होलीमहोत्सवः भवत्कृते भवत्परिवारकृते च

क्षेमस्थैर्य-आयुः-आरोग्य-ऐश्वर्य-अभिवृद्घिकारकः भवतु।।

।।होलिकाया: हार्दिकशुभाशयाः।।

-होली का यह त्योहार आपके और आपके परिवार के लिए है यह आपकी भलाई, स्थिरता, दीर्घायु, स्वास्थ्य और धन में वृद्धि करे। होली की हार्दिक शुभकामनाएं।

पूजन सामग्री

पूजन सामग्री के लिए एक थाल में गुलरी (बड़गुल्ले की मालाएं), चौमुखा दीपक, जल का लोटा, पिसी हल्दी या रोली, बताशे, नारियल, फूल, गुलाल, गुड़ की ढेली, शरद सूत की कुकड़ी, आठ पूरी, हलवा या आटा, दक्षिणा , गेहूं, जौ, चना की बालियां, एक कच्चा पापड़ रख लें।

फाल्गुन पूर्णिमा (होलिका दहन) व्रत एवं पूजन विधि

फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होलिका का पूजन मुख्य रूप से किया जाता है और भगवान नरसिंह की पूजा की जाती है।

नारद पुराण के अनुसार होलिका दहन के अगले दिन (रंग वाली होली के दिन) प्रात: काल उठकर आवश्यक नित्यक्रिया से निवृत्त होकर पितरों और देवताओं के लिए तर्पण-पूजन करना चाहिए। घर के आंगन को गोबर से लीपकर उसमें एक चौकोर मण्डल बनाना चाहिए। 

  • ईंटें या मिट्टी से सूक्ष्म वेदीनुमा बना लें और समझौते का चौक पूर कर थोड़ा गुलाल छिड़क दें। इसमें शामिल हैं प्रह्लाद के प्रतीक के रूप में एक डण्डा गाढ़ देना और चारों ओर गूलरी की माला व उपले लगना । उसके उपरांत सूखी लकड़ी व गाय के गोबर के उपलो से होलीका सजाएं।

  • अब होलिका के पास पूर्व या उत्तर दिशा में मुख करके बैठें। यथाशक्ति संकल्प लेकर गोत्र-नामादि का उच्चारण कर पूजा करें।

  • सबसे पहले गणेश व गौरी इत्यादि का पूजन करें।

  • ॐ होलिकायै नम: से होली का पूजन करें।

  • ॐ प्रहलादाय नम: से प्रहलाद का पूजन करें।

  • ॐ नृसिंहाय नम: से भगवान नृसिंह का पूजन करें।

  • इसके उपरांत भगवान नरसिंह का ध्यान करने के बाद होलिका पर रोली, चावल, फूल, बताशे अर्पित किये जाते हैं और इसके बाद होलिका पर प्रहलाद का नाम लेकर पुष्प अर्पित किये जाते हैं। भगवान नरसिंह का नाम लेते हुए पांच अनाज चढ़ाये जाते हैं।

  • इसके बाद बड़गुल्ले की 4 मालाएं लें, एक पितरों के नाम, एक हनुमान जी के लिए, एक शीतला माता के लिए और एक अपने परिवार की होलिका को समर्पित करें।

  • अब होलिका की 3 या 7 बार परिक्रमा करते हुए कच्चा सूत या मौली को होलिका के चारों तरफ लपेट दिया जाता है।

  • अब होलिका पर गुलाल व रोली चढ़ाएं। इसके बाद समस्त पूजा सामग्री (फूल, साबुत हल्‍दी, साबुत मूंग, बताशे और 5 या फिर 7 प्रकार के अनाज, मिठाइयां और फल) होलिका को समर्पित कर दें।

  • लोटे का जल चढ़ाकर कहें- ॐ ब्रह्मार्पणमस्तु। फिर अपनी मनोकामनाएं कह दें और गलतियों की क्षमा मांग लें।

  • जब पूजन का समय हो मोहल्ले की होली में थोड़ी सी अग्नि लाकर घर की होली जलाएं। अग्नि सर्वेक्षण ही डण्डा को निकाल लेता है क्योंकि वह भक्त प्रह्लाद का रूप मानता है।

  • होलिका दहन होने के बाद होलिका में जिन वस्तुओं की आहुति दी जाती है, उनमें कच्चे आम, नारियल, भुट्टे या सप्तधान्य, चीनी के बने खिलौने, नई फसल का कुछ भाग प्रमुख है. होलिका के आग में गेंहू की बालियों को सेंक लें। बाद में उनको खा लें, इससे आप निरोग रहेंगे। साथ ही घर के बुजुर्गों के पैरों पर गुलाल लगाकर आशीर्वाद लिया जाता है।

  • दूसरे दिन होली की भस्म को अपने मस्तक पर स्थापना से सभी जाम की शान्ति होती है ।

होलिका दहन करने से सभी अनिष्ट दूर हो जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन जो मनुष्य मिश्रित मन से हिंडोले में झूते हुए बालकृष्ण के दर्शन करता है, वह दृढ़ संकल्प ही वैकुण्ठ में वास करता है ।

हिन्दु धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार, होलिका दहन, जिसे होलिका दीपक और छोटी होली के नाम से भी जाना जाता है, को सूर्यास्त के पश्चात प्रदोष के समय, जब पूर्णिमा तिथि व्याप्त हो, करना चाहिये। भद्रा, जो पूर्णिमा तिथि के पूर्वाद्ध में व्याप्त होती है, के समय होलिका पूजा और होलिका दहन नहीं करना चाहिये। सभी शुभ कार्य भद्रा में वर्जित हैं।

फाल्गुन पूर्णिमा व्रत की कथा

फाल्गुन पूर्णिमा व्रत की तो अनेक कथाएं है लेकिन नारद पुराण की कथा को सबसे अधिक महत्व का माना जाता है। नारद पुराण के अनुसार फाल्गुन पूर्णिमा की कथा राक्षस हिरण्यकश्यपु की बहन राक्षसी होलिका के दहन की कथा है। पौराणिक कथाओं के अनुसार जब राजा हिरण्यकश्यप ने यह देखा कि उसका पुत्र उसकी बात मानने की जगह भगवान विष्णु की पूजा करता है तो उसने गुस्से में अपनी बहन होलिका को प्रहलाद के साथ अग्नि में बैठने का हुक्म दिया ताकि प्रहलाद अग्नि में भस्म हो जाए।

हिरण्यकश्यपु के कहने पर होलिका प्रहलाद को आग में जलाने के लिए उसे अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठ जाती है। कहते हैं कि होलिका को यह वरदान मिला था कि अग्नि उसे जला नहीं  सकती है। लेकिन भगवान विष्णु  ने अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा  की और उसे आग में जलने से बचा लिया। वही होलिका अग्नि में जलकर राख हो गई। मान्यता है की बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के तौर पर फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होलिका दहन किया जाता है।

फाल्गुन पूर्णिमा के अनुष्ठान:-
  • फाल्गुन पूर्णिमा पर भक्तों को सुबह जल्दी उठने और पवित्र नदियों में पवित्र स्नान करने की आवश्यकता होती है क्योंकि ऐसा करना बहुत शुभ और भाग्यशाली माना जाता है।
  • पवित्र स्नान करने के बाद, भक्तों को मंदिर में या कार्यशाला या घर में विष्णु भगवान की पूजा करनी चाहिए।
  • विष्णु पूजा का अनुष्ठान करने के बाद सत्यनारायण कथा का पाठ करना चाहिए।
  • भक्तों को भगवान विष्णु के मंदिर में जाना चाहिए, पूजा और प्रार्थना करनी चाहिए।
  • गायत्री मंत्र और ओम नमो नारायण मंत्र 1008 बार जाप करना बहुत शुभ माना जाता है।
  • लोगों को फाल्गुन पूर्णिमा पर अधिक से अधिक दान करना चाहिए। भोजन, कपड़े और पैसे जरूरतमंदों को दान करने चाहिए।
होलिका दहन के मुहूर्त के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिये –

भद्रा रहित, प्रदोष व्यापिनी पूर्णिमा तिथि, होलिका दहन के लिये उत्तम मानी जाती है। यदि भद्रा रहित, प्रदोष व्यापिनी पूर्णिमा का अभाव हो परन्तु भद्रा मध्य रात्रि से पहले ही समाप्त हो जाए तो प्रदोष के पश्चात जब भद्रा समाप्त हो तब होलिका दहन करना चाहिये। यदि भद्रा मध्य रात्रि तक व्याप्त हो तो ऐसी परिस्थिति में भद्रा पूँछ के दौरान होलिका दहन किया जा सकता है। परन्तु भद्रा मुख में होलिका दहन कदाचित नहीं करना चाहिये। धर्मसिन्धु में भी इस मान्यता का समर्थन किया गया है। धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार भद्रा मुख में किया होली दहन अनिष्ट का स्वागत करने के जैसा है जिसका परिणाम न केवल दहन करने वाले को बल्कि शहर और देशवासियों को भी भुगतना पड़ सकता है। किसी-किसी साल भद्रा पूँछ प्रदोष के बाद और मध्य रात्रि के बीच व्याप्त ही नहीं होती तो ऐसी स्थिति में प्रदोष के समय होलिका दहन किया जा सकता है। कभी दुर्लभ स्थिति में यदि प्रदोष और भद्रा पूँछ दोनों में ही होलिका दहन सम्भव न हो तो प्रदोष के पश्चात होलिका दहन करना चाहिये।

होलिका दहन का मुहूर्त किसी त्यौहार के मुहूर्त से ज्यादा महवपूर्ण और आवश्यक है। यदि किसी अन्य त्यौहार की पूजा उपयुक्त समय पर न की जाये तो मात्र पूजा के लाभ से वञ्चित होना पड़ेगा परन्तु होलिका दहन की पूजा अगर अनुपयुक्त समय पर हो जाये तो यह दुर्भाग्य और पीड़ा देती है।


होली की ज्वाला में व्हीट, जौ व चने की बालियां क्यों भूंते हैं?

फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा नव धान्य (जौ, गेहूं, चने) को यज्ञ रूपी भगवान को समर्पित करने का दिन है। इस पर्व को 'नवन्नेष्टि यज्ञ पर्व' भी कहा जाता है। होली के अवसर पर नए धान्य (जौ, गेहं, चने) की जमीनें पक कर तैयार हो जाती हैं। हिन्दू धर्म में खेत से आए नए अन्न को यज्ञ में हवन करके प्रसाद चयन की बैंकरीकरण है। उस अन्न को 'होला' कहते हैं।

अत: फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को उपले आदि समेकन कर में यज्ञ की तरह अग्नि स्थापित की जाती है जिसे 'होलिका जनाना' कहते हैं। फिर रोली, मिठाई से पूजन करके हवन के चरू के रूप में जौ, गेहूँ, चने की बालियों को आहुति के रूप में होली की ज्वाला में सेकते हैं। होली की तीन परिक्रमा करते हैं और सिकीं हुई बालियों को घर लाकर प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। इस तरह होली के रूप में 'नवन्नेष्टि यज्ञ' संपन्न होता है। इस तरह नया अन्न का यज्ञ करने से मनुष्य हृष्ट-पुष्ट व बलवान बनता है।

इस विधि से फाल्गुनोत्सव मनाने से लोगों की सभी आधि-व्याधि का नाश हो जाता है और वह पुत्र, पौत्र व धन-धान्य से संपन्न होता है।

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-अतुल कृष्णदास

Saturday, March 2, 2019

महाशिवरात्रि पर विशेष

महाशिवरात्रि

महाशिवरात्र‍ि हिंदुओं का एक धार्मिक त्योहार है, जिसे हिंदू धर्म के प्रमुख देवता महादेव अर्थात भगवान शिवजी के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। कई स्थानों पर यह भी माना जाता है कि इसी दिन भगवान शिव का विवाह हुआ था। महाशिवरात्र‍ि का पर्व फाल्गुन मास में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाता है। इस दिन शिवभक्त एवं शिव में श्रद्धा रखने वाले लोग व्रत-उपवास रखते हैं और विशेष रूप से भगवान शिव की आराधना करते हैं। 

महाशिवरात्रि कथा 

शिव महापुराण के अनुसार- प्राचीन काल में एक जंगल में एक गुरुद्रुह नाम का एक शिकारी रहता था जो जंगली जानवरों का शिकार करता और अपने परिवार का भरण-पोषण किया करता था। एक बार शिव-रात्रि के दिन जब वह शिकार के लिए निकला, पर संयोगवश पूरे दिन खोजने के बाद भी उसे कोई शिकार नहीं मिला, उसके बच्चों, पत्नी एवं माता-पिता को भूखा रहना पड़ेगा इस बात से वह चिंतित हो गया, सूर्यास्त होने पर वह एक जलाशय के समीप गया और वहां एक घाट के किनारे एक पेड़ पर थोड़ा सा जल पीने के लिए लेकर, चढ़ गया क्योंकि उसे पूरी उम्मीद थी कि कोई-न-कोई जानवर अपनी प्यास बुझाने के लिए इस जलाशय के निकट ज़रूर आयेगा। यह सोचकर वह एक ‘बेल-पत्र’ के पेड़ पर चढ़ गया। उसी पेड़ के नीचे शिवलिंग भी था जो सूखे बेलपत्रों से ढके होने के कारण दिखाई नहीं दे रहा था।

रात का पहला प्रहर बीतने से पहले एक हिरणी वहां पर पानी पीने के लिए आई। उसे देखते ही शिकारी ने अपने धनुष पर बाण साधा। ऐसा करने में, उसके हाथ के धक्के से कुछ पत्ते एवं जल की कुछ बूंदे नीचे बने शिवलिंग पर गिरीं और अनजाने में ही शिकारी की पहले प्रहर की पूजा हो गयी। हिरणी ने जब पत्तों की खड़खड़ाहट सुनी, तो घबरा कर ऊपर की ओर देखा और भयभीत हो कर, शिकारी से कांपते हुए स्वर में बोली- ‘मुझे मत मारो |’ शिकारी ने कहा कि वह और उसका परिवार भूखा है इसलिए वह उसे नहीं छोड़ सकता। हिरणी ने वादा किया कि वह अपने बच्चों को अपने स्वामी को सौंप कर लौट आयेगी। तब वह उसका शिकार कर ले। शिकारी को उसकी बात का विश्वास नहीं हो रहा था। उसने फिर से शिकारी को यह कहते हुए अपनी बात का भरोसा करवाया कि जैसे सत्य पर ही धरती टिकी है, समुद्र मर्यादा में रहता है और झरनों से जल-धाराएँ गिरा करती हैं वैसे ही वह भी सत्य बोल रही है। क्रूर होने के बावजूद भी, शिकारी को उस पर दया आ गयी और उसने ‘जल्दी लौटना’ कहकर उस हिरनी को जाने दिया। 

थोड़ी ही देर बाद एक और हिरनी वहां पानी पीने आई, शिकारी सावधान हो गया, तीर सांधने लगा और ऐसा करते हुए, उसके हाथ के धक्के से फिर पहले की ही तरह थोडा जल और कुछ बेलपत्र नीचे शिवलिंग पर जा गिरे और अनायास ही शिकारी की दूसरे प्रहर की पूजा भी हो गयी। इस हिरनी ने भी भयभीत हो कर, शिकारी से जीवनदान की याचना की लेकिन उसके अस्वीकार कर देने पर, हिरनी ने उसे लौट आने का वचन, यह कहते हुए दिया कि उसे ज्ञात है कि जो वचन दे कर पलट जाता है, उसका अपने जीवन में संचित पुण्य नष्ट हो जाया करता है। उस शिकारी ने पहले की तरह, इस हिरनी के वचन का भी भरोसा कर उसे जाने दिया।

अब तो वह इसी चिंता से व्याकुल हो रहा था कि उन में से शायद ही कोई हिरनी लौट के आये और अब उसके परिवार का क्या होगा। इतने में ही उसने जल की ओर आते हुए एक हिरण को देखा, उसे देखकर शिकारी बड़ा प्रसन्न हुआ ,अब फिर धनुष पर बाण चढाने से उसकी तीसरे प्रहर की पूजा भी स्वतः ही संपन्न हो गयी लेकिन पत्तों के गिरने की आवाज़ से वह हिरन सावधान हो गया। उसने शिकारी को देखा और पूछा –“ तुम क्या करना चाहते हो ?” वह बोला-“अपने कुटुंब को भोजन देने के लिए तुम्हारा वध करूंगा।” वह मृग प्रसन्न हो कर कहने लगा – “मैं धन्य हूँ कि मेरा यह शरीर किसी के काम आएगा, परोपकार से मेरा जीवन सफल हो जायेगा पर कृपया कर अभी मुझे जाने दो ताकि मैं अपने बच्चों को उनकी माता के हाथ में सौंप कर और उन सबको धीरज बंधा कर यहाँ लौट आऊं।” शिकारी का ह्रदय, उसके पापपुंज नष्ट हो जाने से अब तक शुद्ध हो गया था इसलिए वह विनयपूर्वक बोला –‘ जो-जो यहाँ आये, सभी बातें बनाकर चले गये और अभी तक नहीं लौटे, यदि तुम भी झूठ बोलकर चले जाओगे, तो मेरे परिजनों का क्या होगा ?” अब हिरन ने यह कहते हुए उसे अपने सत्य बोलने का भरोसा दिलवाया कि यदि वह लौटकर न आये, तो उसे वह पाप लगे जो उसे लगा करता है जो सामर्थ्य रहते हुए भी दूसरे का उपकार नहीं करता। शिकारी ने उसे भी यह कहकर जाने दिया कि शीघ्र लौट आना।

रात्रि का अंतिम प्रहर शुरू होते ही उस शिकारी के हर्ष की सीमा न थी क्योंकि उसने उन सब हिरन-हिरनियों को अपने बच्चों सहित एक साथ आते देख लिया था। उन्हें देखते ही उसने अपने धनुष पर बाण रखा और पहले की ही तरह उसकी चौथे प्रहर की भी शिव-पूजा संपन्न हो गयी। अब उस शिकारी के शिव कृपा से सभी पाप भस्म हो गये इसलिए वह सोचने लगा-‘ओह, ये पशु धन्य हैं जो ज्ञानहीन हो कर भी अपने शरीर से परोपकार करना चाहते हैं लेकिन धिक्कार है मेरे जीवन को कि मैं अनेक प्रकार के कुकृत्यों से अपने परिवार का पालन करता रहा।’ अब उसने अपना बाण रोक लिया तथा मृगों से कहा की वे सब धन्य है तथा उन्हें वापिस जाने दिया। उसके ऐसा करने पर भगवान् शंकर ने प्रसन्न हो कर तत्काल उसे अपने दिव्य स्वरूप का दर्शन करवाया तथा उसे सुख-समृद्धि का वरदान देकर “गुह’’ नाम प्रदान किया। मित्रों, यही वह गुह था जिसके साथ भगवान् श्री राम ने मित्रता की थी।

महाशिवरात्रि व्रत का महत्व 

' फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि ।
शिवलिङ्गतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभ।।

अर्थात:- फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में आदिदेव भगवान शिव करोडों सूर्यों के समान प्रभाव वाले लिंग रूप में प्रकट हुए।

महाशिवरात्रि व्रत के नियम

महाशिवरात्रि का व्रत मनवांछित फल की प्राप्ति हेतु किया जाता है। व्रतधारी को ब्रह्म मुर्हत में उठना चाहिए साथ ही इस दिन ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। सुबह उठकर पानी में कुछ बूंद गंगा जल डालकर नहाना चाहिए। इस व्रत मे शिवजी पार्वती का पूजन करना चाहिए। 

१. सर्वप्रथम भगवान शिवजी और माता पार्वतीजी का अभिषेक जल या गंगाजल करें उसके उपरांत पंचामृत स्नान गाय का कच्चा दूध, दही, घी, शहद, चने की दाल, गुड़, काले तिल, आदि कई सामग्रियों से अभिषेक करना चाहिए और फिर पुनः जल या गंगाजल से शुद्धोदक स्नान करना चाहिए।

२. तत्पश्चात भगवान को सिंदूर एवं चावल से तिलक करना चाहिए।

३. तत्पश्चात श्वेत पुष्प, बिल्वपत्र, धतूरा, भाँग एवं बेर आदि अर्पण कर पूजन करना चाहिए।

४. तदुपरांत भगवान शिव का पंचाक्षरी मंत्र "ऊँ नमः शिवाय" अथवा महामृत्युंजय मंत्र का जाप करना चाहिए।

५. शिव-पार्वती की पूजा के बाद सावन के सोमवार की व्रत कथा सुननी चाहिए।

६. भगवान शिवजी आरती करने के बाद भोग लगाएं और घर परिवार में बांटने के पश्चात स्वयं ग्रहण करें।

७. पूजन के उपरांत ब्राह्मण (आचार्य, विप्र, द्विज, द्विजोत्तम) एवं निर्धन व्यक्ति को भोजन एवं दान-दक्षिणा देकर विदा करना चाहिए।

८. आप इस व्रत मे फलाहार नियम रख सकते हैं। परन्तु याद रखें केवल एक समय ही भोजन करना हैं।

इस प्रकार श्रद्धापूर्वक व्रत करने से भगवान भोलेनाथ एवं माता पार्वती प्रसन्न होकर मनवांछित फल देते हैं।

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-अतुल कृष्ण

Wednesday, November 7, 2018

दीपावली पर विशेष (व्रत विधि, नियम एवं कथा)

दीपावली पर विशेष (व्रत विधि, नियम एवं कथा)

     दीपावली हिंदू धर्म का सबसे पवित्र त्योहार है। दीपावली उत्सव पुरे भारत में मुख्य रूप से मनाया जाता है। भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी दिवाली बहुत ही धूमधाम से मनाई जाती है। दिवाली या दीपावली का शाब्दिक अर्थ है दीयों को श्रृंखला में लगाना। मान्यता है कि यह दीये अंधकरा पर प्रकाश, असत्य पर सत्य की जीत को दर्शाते हैं। दिवाली को अन्य भाषाओं में अलग-अलग नामों से जाना जाता है, बंगाली में 'दीपाबॉली' नेपाली में 'तिहार' और मारवाड़ी में 'दियाळी'।

दीपावली व्रत विधि

     दीपावली व्रत के दिन प्रात: उठकर स्नान करें और पूजा पाठ करके अपनी संतान की दीर्घायु एवं सुखमय जीवन हेतु कामना करते हुए, ऐसा संकल्प करें। रोली, इत्र, कलावे, पान, सुपारी, फल-फूल, दूध, दही, घी, धुप, दीप, कपूर, शहद, दियासलाई, जल-पात्र, गणेश-लक्ष्मी, लाल वस्त्र, मिठाई, नारियल, सिन्दूर, मेवा एवं गंगा जल, आगे अपनी वंश-परंपरा के अनुसार अन्य वस्तुएं।

     कार्तिक मास की अमावस्या को दीपावली व्रत एवं पूजन किया जाता है। यह त्यौहार सभी जातियों का होता है क्योंकि श्री महालक्ष्मी जी को प्रसन्न करने को इसे सभी मानते हैं। इसमें गणेश-लक्ष्मी के पूजन सा साथ-साथ भगवान विष्णु, कुबेर, इन्द्र और सरस्वती एवं ठाकुर जी की भी पूजा की जाती है। व्यापारी वर्ग वही-खाते कमल-दावत आदि की भी पूजा करते हैं। उपरोक्त लिखे समस्त देवी-देवताओं का षोडष प्रकार से पूजन किया जाता है। खील-बताशे, मीठा आदि का भोग लगाना चाहिए एवं हवन आदि करना चाहिए। लक्ष्मी जी का अपने सोने-चाँदी के जेवरों तथा नकद रूपये आदि भी रखकर पूजन करना चाहिए। चौकी पर लक्ष्मी व गणेश की मूर्तियां इस प्रकार रखें कि उनका मुख पूर्व या पश्चिम में रहे। लक्ष्मीजी, गणेशजी की दाहिनी ओर रहें। कलश को लक्ष्मीजी के पास चावलों पर रखें। नारियल को लाल वस्त्र में इस प्रकार लपेटें कि नारियल का अग्रभाग दिखाई देता रहे व इसे कलश पर रखें। यह कलश वरुण का प्रतीक है।

     26 छोटे दीपक जलाकर खील-बताशों से पूजन करना चाहिए। लक्ष्मी जी और गणेश जी के पास दो बड़े दीपक जलने चाहिए। एक में घी भरें व दूसरे में तेल। एक दीपक चौकी के दाईं ओर रखें व दूसरा मूर्तियों के चरणों में। इसके अतिरिक्त एक दीपक गणेशजी के पास रखें। मूर्तियों वाली चौकी के सामने छोटी चौकी रखकर उस पर लाल वस्त्र बिछाएं। कलश की ओर एक मुट्ठी चावल से लाल वस्त्र पर नवग्रह की प्रतीक नौ ढेरियां बनाएं। गणेशजी की ओर चावल की सोलह ढेरियां बनाएं। ये सोलह मातृका की प्रतीक हैं। नवग्रह व षोडश मातृका के बीच स्वस्तिक का चिह्न बनाएं। इसके बीच में सुपारी रखें व चारों कोनों पर चावल की ढेरी। सबसे ऊपर बीचोंबीच ॐ लिखें। छोटी चौकी के सामने तीन थाली व जल भरकर कलश रखें। इस दिन तेल के दीपक से काजल पालकर सभी को लगाना चाहिए। पूजन के उपरांत अधिक से अधिक श्रद्धा-भाव से माता-पिता को भेंट देकर उनको प्रणाम करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। साथ ही इस दिन ब्राह्मणों को भोजन एवं दक्षिणा देकर विदा करना चाहिए। पूजन के पश्चात् स्त्री अन्न जल ग्रहण करें। प्रातः उठकर औरतों को पूप बजाकर दरिद्र निकलना चाहिए। इस प्रकार विधि से पूजन करने से घर में लक्ष्मी जी पधारती है।

 दीपावली का महत्व 

1. जब भगवान विष्णु ने वामन रूप धारण करके राजा बलि को पटल भेजा था तब देवराज इंद्रा ने प्रसन्न होकर घी के दीप जला करके दीपावली मनाई थी।
2. इसी दिन समुन्द्र मंथन करने पर लक्ष्मी जी प्रकट हुई थीं और श्री विष्णु भगवन को अपना पति बनाया था।
3. जब भगवान श्री राम लंका विजय करके अयोध्या में लौटने पर उनका राज्य-तिलक हुआ था तो अयोध्या वासियों ने घर-घर घी के दीप जला करके दीपावली मनाई।
4. इसी दिन श्री वीर विक्रमादित्य जी ने विक्रमी सम्वत का निर्माण किया।
5. इसी दिन महर्षि दयानद सरस्वती जी को स्वर्ग का अधिकार मिला था तो समस्त देवताओं ने स्वर्ग में घी के दीप जलाकर दीपावली मनाई थी।

गणेश जी की कथा

      एक बुढ़िया थी। वह बहुत ही ग़रीब और अंधी थीं। उसका एक बेटा और बहू थे। वह बुढ़िया सदैव गणेश जी की पूजा किया करती थी। एक दिन गणेश जी सम्मुख प्रकट होकर उस बुढ़िया से बोले-बुढ़िया मां! तू जो चाहे सो मांग ले। बुढ़िया बोली- मुझसे तो मांगना नहीं आता। कैसे और क्या मांगू? तब गणेशजी बोले - अपने बहू-बेटे से पूछकर मांग ले। तब बुढ़िया ने अपने बेटे से कहा- गणेशजी कहते हैं तू कुछ मांग ले बता मैं क्या मांगू? पुत्र ने कहा- मां! तू धन मांग ले। बहू से पूछा तो बहू ने कहा- नाती मांग ले। तब बुढ़िया ने सोचा कि ये तो अपने-अपने मतलब की बात कह रहे हैं। अत: उस बुढ़िया ने पड़ोसिनों से पूछा, तो उन्होंने कहा- बुढ़िया! तू तो थोड़े दिन जीएगी, क्यों तू धन मांगे और क्यों नाती मांगे। तू तो अपनी आंखों की रोशनी मांग ले, जिससे तेरी ज़िन्दगी आराम से कट जाए।

     इस पर बुढ़िया बोली- यदि आप प्रसन्न हैं, तो मुझे नौ करोड़ की माया दें, निरोगी काया दें, अमर सुहाग दें, आंखों की रोशनी दें, नाती दें, पोता, दें और सब परिवार को सुख दें और अंत में मोक्ष दें। यह सुनकर तब गणेशजी बोले- बुढ़िया मां! तुने तो हमें ठग दिया। फिर भी जो तूने मांगा है वचन के अनुसार सब तुझे मिलेगा। और यह कहकर गणेशजी अंतर्धान हो गए। उधर बुढ़िया माँ ने जो कुछ मांगा वह सबकुछ मिल गया। हे गणेशजी महाराज! जैसे तुमने उस बुढ़िया माँ को सबकुछ दिया, वैसे ही सबको देना।

लक्ष्मी जी की कथा

     प्राचीन समय में एक नगर में एक साहूकार था, उसकी एक लड़की थी। वह नित्य पीपल देवता की पूजा करती थी। उसने देखा की श्री महालक्ष्मी जी उसी पीपल से निकला करती है।  एक दिन लक्ष्मी जी ने साहूकार की बेटी से कहा कि मैं तुझ पर बहुत प्रसन्न हूँ इस लिए तू मेरी सहेली बनना स्वीकार कर लें। लड़की ने कहा की मैं अपने माता-पिता से पूछ कर बताऊँगी । यह बात उसने अपने पिता को बताई, तो पिता ने ‘हां’ कर दी। दूसरे दिन से साहूकार की बेटी ने सहेली बनना स्वीकार कर लिया।

     दोनों अच्छे मित्रों की तरह आपस में बातचीत करने लगे। एक दिन लक्ष्मीजी साहूकार की बेटी को अपने घर ले गई। अपने घर में लक्ष्मी जी उसका दिल खोल कर स्वागत किया। उसकी खूब खातिर की। उसे अनेक प्रकार के भोजन परोसे। मेहमान नवाजी के बाद जब साहूकार की बेटी लौटने लगी तो, लक्ष्मी जी ने प्रश्न किया कि अब तुम मुझे कब अपने घर बुलाओगी। साहूकार की बेटी ने लक्ष्मी जी को अपने घर बुला तो लिया, परन्तु अपने घर की आर्थिक स्थिति देख कर वह उदास हो गई। उसे डर लग रहा था कि क्या वह, लक्ष्मी जी का अच्छे से स्वागत कर पायेगी।

     साहूकार ने अपनी बेटी को उदास देखा तो वह समझ गया, उसने अपनी बेटी को समझाया, कि तू फौरन मिट्टी से चौका लगा कर साफ-सफाई कर। चार बत्ती के मुख वाला दिया जला और लक्ष्मी जी का नाम लेकर बैठ जा। उसी समय एक चील किसी रानी का नौलखा हार लेकर उसके पास डाल गया। साहूकार की बेटी ने उस हार को बेचकर भोजन की तैयारी की। थोड़ी देर में श्री गणेश के साथ लक्ष्मी जी उसके घर आ गई। साहूकार की बेटी ने दोनों की खूब सेवा की, उसकी खातिर से लक्ष्मी जी बहुत प्रसन्न हुई। और साहूकार बहुत अमीर बन गया।

लक्ष्मी जी की आरती

ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता।
तुम को निश दिन सेवत, हर विष्णु विधाता।।
उमा रमा ब्रह्माणी, तुम ही जग माता।
सूर्य चंद्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता।।
दुर्गा रूप निरंजनि, सुख सम्पति दाता।
जो कोई तुमको ध्याता, ऋद्धि सिद्धि धन पाता।।
तुम पाताल निवासिनी, तुम ही शुभ दाता।
कर्म प्रभाव प्रकाशिनी, भव निधि की त्राता।।
जिस घर तुम रहती सब सद्‍गुण आता।
सब संभव हो जाता, मन नहीं घबराता।।
तुम बिन यज्ञ न होते, वस्त्र न कोई पाता।
खान पान का वैभव, सब तुमसे आता।।
शुभ गुण मंदिर सुंदर, क्षीरोदधि जाता।
रत्न चतुर्दश तुम बिन, कोई नहीं पाता।।
महालक्ष्मीजी की आरती, जो कोई नर गाता।
उर आनंद समाता, पाप उतर जाता।।

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-अतुल कृष्ण

Wednesday, October 31, 2018

अहोई अष्टमी पर विशेष (व्रत विधि, नियम एवं कथा)


अहोई अष्टमी (व्रत विधि, नियम एवं कथा)

     अहोई अष्टमी का उत्तम पर्व उत्तर भारत के उत्तरप्रदेश, पंजाब, राजस्थान और गुजरात में मुख्य रूप से मनाया जाता है। भारत ही नहीं वरन विदेशों में भी धर्म प्रेमी इस व्रत को मनाते है। संतान के जीवन में सुख-समृद्धि की कामना हेतु कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी को अहोई अष्टमी का व्रत किया जाता है।  इस दिन महिलाएं निर्जला व्रत करती हैं। यह व्रत खासतौर से संतान प्राप्ति और संतान की खुशहाली के लिए रखा जाता है। इस दिन अहोई माता की पूजा की जाती है। माताएं अहोई अष्टमी के व्रत में दिन भर उपवास रखती हैं और सायंकाल तारे दिखाई देने के समय अहोई माता का पूजन किया जाता है। तारों की पूजा कर तारों को करवा से अर्ध्य भी दिया जाता है। यह अहोई गेरू आदि के द्वारा दीवार पर बनाई जाती है अथवा किसी मोटे वस्त्र पर अहोई काढ़कर पूजा के समय उसे दीवार पर टांग दिया जाता है। इस दिन धोबी मारन लीला का भी मंचन होता है, जिसमें श्री कृष्ण द्वारा कंस के भेजे धोबी का वध प्रदर्शन किया जाता है।

अहोई अष्टमी व्रत विधि

1. अहोई अष्टमी व्रत के दिन प्रात: उठकर स्नान करें और पूजा पाठ करके अपनी संतान की दीर्घायु एवं सुखमय जीवन हेतु कामना करते हुए, मैं अहोई माता का व्रत कर रही हूँ, ऐसा संकल्प करें।
2. अहोई माता मेरी संतान को दीर्घायु, स्वस्थ एवं सुखी रखे। माता पार्वती की पूजा करें।
3. अहोई माता की पूजा के लिए गेरू से दीवार पर अहोई माता का चित्र बनाएँ और साथ ही सेह और उसके सात पुत्रों का चित्र बनाएँ।
4. संध्या काल में इन चित्रों की पूजा करें।
5. अहोई पूजा में एक अन्य विधान यह भी है कि चांदी की अहोई बनाई जाती है जिसे सेह या स्याऊ कहते हैं। इस सेह की पूजा रोली, अक्षत, दूध भात से की जाती है। पूजा चाहे आप जिस विधि से करें लेकिन दोनों में ही पूजा के लिए एक कलश में जल भर कर रख लें।
6. पूजा के बाद अहोई माता की कथा सुने और सुनाएं।
7. पूजा के पश्चात् सासू-मां के पैर छूएं और उनका आर्शीवाद प्राप्त करें।
8. तारों की पूजा करें और जल चढ़ायें।
9. इसके पश्चात् व्रती अन्न जल ग्रहण करें।

"तारों को करवे से अर्ध्य देने के उपरांत उस करवे (कलश) को भरकर पूर्व दिशा में रख दें तथा दीपावली के दिन सुबह को अपने बच्चों को इस कलश के जल से स्नान करायें। इस प्रकार यह क्रिया अत्यंत शुभ मानी जाती है।"अतुल कृष्ण

अहोई अष्टमी का उजमन

जिस सौभाग्यवती स्त्री के पुत्र हुआ हो या पुत्र का विवाह हुआ हो उस स्त्री को अहोई माता का उजमन करना चाहिए। उस दिन एक थाली में सात जगह चार-चार पूड़ियों पर थोड़ा-थोड़ा सीरा (हलवा) रखें।  इसके साथ एक तीयल (साड़ी) तथा उस पर श्रद्धा अनुसार रूपये रखकर थाली के चारों ओर हाथ फेरकर श्रद्धा और सम्मान के साथ सासू के पाँव पकड़कर उन्हें दें। सासू जी साड़ी और रुपयों को अपने पास रख लें बाकी हलवा और पुरियों को बाँट दें। इसको ही बायना कहते हैं। साथ ही थोड़ा बायना अपनी बहन-बेटी के घर भी भिजवा दें।

अहोई अष्टमी व्रत प्रथम कथा

     प्राचीनकाल में किसी नगर में एक साहूकार रहता था। उसके सात पुत्र थे। दीपावली से पहले साहूकार की स्त्री घर की लीपा-पोती के लिए मिट्टी लेने को खदान में गई और खदान में कुदाल से जब मिट्टी खोदने लगी तो देवयोग से उस ही जगह एक सेह की मांद थी। सहसा उस स्त्री के हाथ से कुल्हाड़ी सेह के बच्चे के लग गयी जिससे सेह का बच्चा उसी क्षण मर गया। यह हत्या हुई देखकर उस स्त्री को बहुत दुःख हुआ। परन्तु अब क्या हो सकता था? वह स्त्री पश्चाताप करती हुई अपने घर गई।

     कुछ दिन के बाद उस स्त्री का बच्चा मर गया। फिर दूसरा और तीसरा अर्थात एक वर्ष में उसके सातों लड़के मर गये। इस पर वह स्त्री रात-दिन अत्यंत दुखित रहने लगी। एक दिन उसने अपने पड़ोस की स्त्रियों से रो-रोकर कहा कि मैने जान-बूझकर कोई पाप नहीं किया, हाँ एक बार मैं मिट्टी खोदने को खदान में गई थी। जब मिट्टी खोदने में सहसा मेरी कुदाली से एक सेह का बच्चा मर गया था, तभी से एक वर्ष के भीतर-भीतर सातों लड़के मर गये।

     यह सुनकर उन स्त्रियों ने धैर्य देते हुए कहा कि तुमने जो यह बात हम सबको सुनाकर पश्चाताप किया है इससे तेरा आधा पाप तो नष्ट हो गया। सो अब तुम उसी अष्टमी (भगवती) की शरण लेकर सेह और सेह के बच्चों का चित्र बनाकर उसकी पूजा किया करो और छमा याचना करो। ईश्वर की कृपा से तुम्हारा समस्त पाप धुल जाएगा और तुम्हें पहले की तरह से ही पुत्रों की प्राप्ति हो जाएगी। उन सबकी बात मानकर उस स्त्री ने कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को व्रत किया तथा प्रत्येक वर्ष व्रत पूजन करती रही। फिर उसे ईश्वर की कृपा से सातों पुत्र प्राप्त हुए। तभी से इस व्रत की परंपरा चली रही है।

अहोई अष्टमी व्रत द्वितीय कथा

     प्राचीन काल में किसी नगर में एक साहुकार रहता था, जिसके सात बेटे और सात बहुएं थीं। साहुकार की एक बेटी भी थी जो दीपावली में ससुराल से मायके आई थी। दीपावली पर घर को लीपने के लिए सातों बहुएं मिट्टी लाने जंगल में गईं तो ननद भी उनके साथ चली गई। साहुकार की बेटी जहां मिट्टी खोद रही थी उस स्थान पर स्याऊ (सेह) अपने बेटे के साथ रहती थी। मिट्टी खोदते समय गलती से  स्याऊ का एक बच्चा मर गया। स्याऊ माता ने कहा कि तूने मेरा बच्चा मार कर मुझे निपुत्र कर दिया इसलिए में तेरी कोख बांधूंगी। स्याऊ के इस तरह के श्राप से साहूकार की बेटी बड़ी दुखी हुई और अपनी सातों भाभियों से एक-एक कर विनती करने लगी कि तुमने से कोई मेरे बदले अपनी कोख बंधवा लें। छः भाभियों ने अपनी कोख बंधवाने से इनकार कर दिया। परन्तु सबसे छोटी भाभी सोचने लगी की यदि मैं अपनी ननद का कहना नहीं मानूँगी तो कहीं सासु जी मुझसे रुष्ठ न हो जायें। तब ऐसा विचार कर उसने ननद के बदले अपनी कोख बँधवाली। इससे जब उसके लड़का हुआ तो वह सातवें दिन मर गया। इसी प्रकार उसके सात पुत्र हुए और  एक-एक कर सात पुत्रों की मृत्यु हो गई। 
     तब एक दिन उसने ज्योतिषी को बुलवाकर पूछा की महाराज जाने क्या बात है, मेरे जो संतान होती है वो सातवें दिन मर जाती है, सो इसका क्या कारण है? तब पंडित जी बोले कि देवी तुम सुरही गाय की पूजा किया करो। क्योंकि सुरही गाय स्याऊ माता की भायली है वो तेरी कोख छोड़े तो तभी तुम्हारा बच्चा जी सकता है। 
     इसके बाद से वह बहु नित्य प्रति प्रातः काल उठ करके चुपचाप सुरही गाय के नीचे सफाई करके अनेक प्रकार से सेवा करती। गऊ माता यह देखकर कि साहूकार के बेटे की बहु नित्य प्रति मेरी बहुत सेवा करती है। गऊ माता उससे बोली कि तू मेरी बहुत सेवा करती है, इसलिए मेरी आत्मा तुझसे बहुत प्रसन्न है, अतः मांग मुझसे क्या माँगती है? साहूकार के बेटे की बहु बोली कि स्याऊ माता तुम्हारी भायली है और उन्होंने मेरी कोख बांध राखी है, सो आप कृपा करके अपनी भायली से मेरी कोख खुलवा दें। उस दुखयारी की यह बातें सुन कर गौ माता बोली अच्छा ठीक है, मैं तेरे लिए यह प्रयत्न करुँगी। एक दिन गौ माता उसे साथ ले सात समुन्दर पार अपनी भायली के पास चल दी। मार्ग में धुप बहुत कड़ी पड़ रही थी, वे दोनों एक पेड़ के नीचे छाय में बैठ गयीं। थोड़ी देर में वहाँ एक साँप आया और उसी वृक्ष पर गरुड़ पंखनी ने बच्चे दे रखे थे वो सर्प उन बच्चों को डसने लगा। तब साहूकार की बहु ने उस सर्प को मार करके ढाल के निचे दबा दिया और उन बच्चों को बचा लिया। थोड़ी देर में गरुड़ पंखनी आई तो वहाँ खून पड़ा देखकर साहूकार की बहु के चोंच मरने लगी। तब वह बहु बोली कि मैंने ही तो तेरे बच्चों की सर्प को मरकर रक्षा की है और तू मेरी ही दुश्मन हो गई। साहूकार की बहु की बात सुन करके गरुड़ पंखनी प्रसन्न होकर बोली तूने मेरे बच्चे बचाये हैं, इसलिए मॉंग क्या माँगती है? तब साहूकार की बहु बोली कि हमें सात समुन्दर पार स्याऊ माता के पास पंहुचा दें। तब गरुड़ पंखनी ने उन दोनों को अपनी पीठ पर बैठाकर लम्बी उड़ान भरकर उसे सात समुन्दर पार स्याऊ माता के पास पहुँचा दिया। 
     स्याऊ माता अपनी भायली गौ माता को देखकर बहुत प्रसन्न हुई और बोली भायली आ आज तो बहुत दिनों में मिली है। फिर बोली कि बहन मेरे सिर में जुएँ बहुत पड़ गई हैं। तब सुरही गऊ बोली कि मेरे साथ मेरी भगतनी आई है ये तेरी सब जुएँ निकल देगी। आज्ञा पाते ही साहूकारनी ने स्याऊ माता की चुन-चुनकर सब जुएँ निकाल दीं। स्याऊ माता बोली कि तूने आज मुझे बहुत आराम दिया है, इसलिए मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, सो आज जो चाहे सो माँग ले, मैं तुझे दूंगीं। तब साहूकारनी बोली कि वचन दो तो माँगूँ। स्याऊ माता बोली- अच्छा वचन दिया और कहा की यदि मैं अपने वचन से फिरूंगी तो धोबी कुण्ड की कंकरी हो जायूँ। तब साहूकार की बहु बोली कि मेरी कोख तुम्हारे पास बँधी पड़ी है, सो कृपा करके खोल दो। उसकी यह बात सुनकर स्याऊ माता बोली तूने तो मुझे ठग लिया। मैं तेरी कोख कभी नहीं खोलती, परन्तु अब तो खोलनी ही पड़ेगी। जा तेरे घर तुझे तेरे सात लड़के और उन सातों की सात बहुएं मिल जाएँगी। तू घर जा करके मेरे सात उजमन करियों। सात अहोई बहकर सात कढ़ाई कर दीजो। 
     यह सुन जब वह लौट करके घर पहुंची तो वहाँ सात बेटे और सातों की बहुएं घर बैठे मिले। यह देखकर वह बहुत खुश हुई। तभी उसने सात अहोई बनाई और सात उजमन किये तथा सात ही कढ़ाई करी। दिवाली के दिन उनकी जिठानियाँ कहने लगीं कि जल्दी-जल्दी अपनी चौका पूजा कर लो अन्यथा छोटी बहु बच्चों की याद करके रोने-धोने लगेगी। थोड़ी देर में उन्होंने अपने बच्चों से कहा कि चाची के घर जाकर के देख के आओ कि आज वो अभी तक क्यों नहीं रोई? बच्चों ने आकर कहा कि चाची अहोई बना रही है और वो तो खूब उजमन कर रही है। यह सुनते ही उनकी जेठानियाँ दौड़कर उसके घर गई और जाकर कहा कि तूने अपनी कोख कैसे छुड़वाई है? वह बोली कि तुमने तो अपनी कोख बंधवाने से इंकार कर दिया पर मैंने अपनी छोटी ननद का ख्याल करके अपनी कोख बांधली थी। अब स्याऊ माता ने मुझ पर कृपा करके मेरी कोख खोल दी, जिस प्रकार मेरी कोख खोली है उसी प्रकार संसार की सभी नारियों की कोख खोल देना। 
     अतः हे स्याऊ माता सभी सुनने वाली तथा हुंकारा भरने वालियों के सब परिवार की नारियों की कोख खोल देना। यही हम सबकी तुमसे विनती है।

अहोई अष्टमी की आरती

जय अहोई माता जय अहोई माता।
तुमको निसदिन ध्यावत हरी विष्णु धाता।।1।।
ब्रम्हाणी रुद्राणी कमला तू ही है जग दाता।
जो कोई तुमको ध्यावत नित मंगल पाता।।2।।
तू ही है पाताल बसंती तू ही है सुख दाता।
कर्म प्रभाव प्रकाशक जगनिधि से त्राता।।3।।
जिस घर थारो वास वही में गुण आता।
कर सके सोई कर ले मन नहीं घबराता।।4।।
तुम बिन सुख होवे पुत्र कोई पता।
खान पान का वैभव तुम बिन नहीं आता।।5।।
शुभ गुण सुन्दर युक्ता क्षीर निधि जाता।
रतन चतुर्दश तोंकू कोई नहीं पाता।।6।।
श्री अहोई माँ की आरती जो कोई गाता।
उर उमंग अति उपजे पाप उतर जाता।।6।।

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-अतुल कृष्ण