Saturday, March 2, 2019

महाशिवरात्रि पर विशेष

महाशिवरात्रि

महाशिवरात्र‍ि हिंदुओं का एक धार्मिक त्योहार है, जिसे हिंदू धर्म के प्रमुख देवता महादेव अर्थात भगवान शिवजी के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। कई स्थानों पर यह भी माना जाता है कि इसी दिन भगवान शिव का विवाह हुआ था। महाशिवरात्र‍ि का पर्व फाल्गुन मास में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाता है। इस दिन शिवभक्त एवं शिव में श्रद्धा रखने वाले लोग व्रत-उपवास रखते हैं और विशेष रूप से भगवान शिव की आराधना करते हैं। 

महाशिवरात्रि कथा 

शिव महापुराण के अनुसार- प्राचीन काल में एक जंगल में एक गुरुद्रुह नाम का एक शिकारी रहता था जो जंगली जानवरों का शिकार करता और अपने परिवार का भरण-पोषण किया करता था। एक बार शिव-रात्रि के दिन जब वह शिकार के लिए निकला, पर संयोगवश पूरे दिन खोजने के बाद भी उसे कोई शिकार नहीं मिला, उसके बच्चों, पत्नी एवं माता-पिता को भूखा रहना पड़ेगा इस बात से वह चिंतित हो गया, सूर्यास्त होने पर वह एक जलाशय के समीप गया और वहां एक घाट के किनारे एक पेड़ पर थोड़ा सा जल पीने के लिए लेकर, चढ़ गया क्योंकि उसे पूरी उम्मीद थी कि कोई-न-कोई जानवर अपनी प्यास बुझाने के लिए इस जलाशय के निकट ज़रूर आयेगा। यह सोचकर वह एक ‘बेल-पत्र’ के पेड़ पर चढ़ गया। उसी पेड़ के नीचे शिवलिंग भी था जो सूखे बेलपत्रों से ढके होने के कारण दिखाई नहीं दे रहा था।

रात का पहला प्रहर बीतने से पहले एक हिरणी वहां पर पानी पीने के लिए आई। उसे देखते ही शिकारी ने अपने धनुष पर बाण साधा। ऐसा करने में, उसके हाथ के धक्के से कुछ पत्ते एवं जल की कुछ बूंदे नीचे बने शिवलिंग पर गिरीं और अनजाने में ही शिकारी की पहले प्रहर की पूजा हो गयी। हिरणी ने जब पत्तों की खड़खड़ाहट सुनी, तो घबरा कर ऊपर की ओर देखा और भयभीत हो कर, शिकारी से कांपते हुए स्वर में बोली- ‘मुझे मत मारो |’ शिकारी ने कहा कि वह और उसका परिवार भूखा है इसलिए वह उसे नहीं छोड़ सकता। हिरणी ने वादा किया कि वह अपने बच्चों को अपने स्वामी को सौंप कर लौट आयेगी। तब वह उसका शिकार कर ले। शिकारी को उसकी बात का विश्वास नहीं हो रहा था। उसने फिर से शिकारी को यह कहते हुए अपनी बात का भरोसा करवाया कि जैसे सत्य पर ही धरती टिकी है, समुद्र मर्यादा में रहता है और झरनों से जल-धाराएँ गिरा करती हैं वैसे ही वह भी सत्य बोल रही है। क्रूर होने के बावजूद भी, शिकारी को उस पर दया आ गयी और उसने ‘जल्दी लौटना’ कहकर उस हिरनी को जाने दिया। 

थोड़ी ही देर बाद एक और हिरनी वहां पानी पीने आई, शिकारी सावधान हो गया, तीर सांधने लगा और ऐसा करते हुए, उसके हाथ के धक्के से फिर पहले की ही तरह थोडा जल और कुछ बेलपत्र नीचे शिवलिंग पर जा गिरे और अनायास ही शिकारी की दूसरे प्रहर की पूजा भी हो गयी। इस हिरनी ने भी भयभीत हो कर, शिकारी से जीवनदान की याचना की लेकिन उसके अस्वीकार कर देने पर, हिरनी ने उसे लौट आने का वचन, यह कहते हुए दिया कि उसे ज्ञात है कि जो वचन दे कर पलट जाता है, उसका अपने जीवन में संचित पुण्य नष्ट हो जाया करता है। उस शिकारी ने पहले की तरह, इस हिरनी के वचन का भी भरोसा कर उसे जाने दिया।

अब तो वह इसी चिंता से व्याकुल हो रहा था कि उन में से शायद ही कोई हिरनी लौट के आये और अब उसके परिवार का क्या होगा। इतने में ही उसने जल की ओर आते हुए एक हिरण को देखा, उसे देखकर शिकारी बड़ा प्रसन्न हुआ ,अब फिर धनुष पर बाण चढाने से उसकी तीसरे प्रहर की पूजा भी स्वतः ही संपन्न हो गयी लेकिन पत्तों के गिरने की आवाज़ से वह हिरन सावधान हो गया। उसने शिकारी को देखा और पूछा –“ तुम क्या करना चाहते हो ?” वह बोला-“अपने कुटुंब को भोजन देने के लिए तुम्हारा वध करूंगा।” वह मृग प्रसन्न हो कर कहने लगा – “मैं धन्य हूँ कि मेरा यह शरीर किसी के काम आएगा, परोपकार से मेरा जीवन सफल हो जायेगा पर कृपया कर अभी मुझे जाने दो ताकि मैं अपने बच्चों को उनकी माता के हाथ में सौंप कर और उन सबको धीरज बंधा कर यहाँ लौट आऊं।” शिकारी का ह्रदय, उसके पापपुंज नष्ट हो जाने से अब तक शुद्ध हो गया था इसलिए वह विनयपूर्वक बोला –‘ जो-जो यहाँ आये, सभी बातें बनाकर चले गये और अभी तक नहीं लौटे, यदि तुम भी झूठ बोलकर चले जाओगे, तो मेरे परिजनों का क्या होगा ?” अब हिरन ने यह कहते हुए उसे अपने सत्य बोलने का भरोसा दिलवाया कि यदि वह लौटकर न आये, तो उसे वह पाप लगे जो उसे लगा करता है जो सामर्थ्य रहते हुए भी दूसरे का उपकार नहीं करता। शिकारी ने उसे भी यह कहकर जाने दिया कि शीघ्र लौट आना।

रात्रि का अंतिम प्रहर शुरू होते ही उस शिकारी के हर्ष की सीमा न थी क्योंकि उसने उन सब हिरन-हिरनियों को अपने बच्चों सहित एक साथ आते देख लिया था। उन्हें देखते ही उसने अपने धनुष पर बाण रखा और पहले की ही तरह उसकी चौथे प्रहर की भी शिव-पूजा संपन्न हो गयी। अब उस शिकारी के शिव कृपा से सभी पाप भस्म हो गये इसलिए वह सोचने लगा-‘ओह, ये पशु धन्य हैं जो ज्ञानहीन हो कर भी अपने शरीर से परोपकार करना चाहते हैं लेकिन धिक्कार है मेरे जीवन को कि मैं अनेक प्रकार के कुकृत्यों से अपने परिवार का पालन करता रहा।’ अब उसने अपना बाण रोक लिया तथा मृगों से कहा की वे सब धन्य है तथा उन्हें वापिस जाने दिया। उसके ऐसा करने पर भगवान् शंकर ने प्रसन्न हो कर तत्काल उसे अपने दिव्य स्वरूप का दर्शन करवाया तथा उसे सुख-समृद्धि का वरदान देकर “गुह’’ नाम प्रदान किया। मित्रों, यही वह गुह था जिसके साथ भगवान् श्री राम ने मित्रता की थी।

महाशिवरात्रि व्रत का महत्व 

' फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि ।
शिवलिङ्गतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभ।।

अर्थात:- फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में आदिदेव भगवान शिव करोडों सूर्यों के समान प्रभाव वाले लिंग रूप में प्रकट हुए।

महाशिवरात्रि व्रत के नियम

महाशिवरात्रि का व्रत मनवांछित फल की प्राप्ति हेतु किया जाता है। व्रतधारी को ब्रह्म मुर्हत में उठना चाहिए साथ ही इस दिन ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। सुबह उठकर पानी में कुछ बूंद गंगा जल डालकर नहाना चाहिए। इस व्रत मे शिवजी पार्वती का पूजन करना चाहिए। 

१. सर्वप्रथम भगवान शिवजी और माता पार्वतीजी का अभिषेक जल या गंगाजल करें उसके उपरांत पंचामृत स्नान गाय का कच्चा दूध, दही, घी, शहद, चने की दाल, गुड़, काले तिल, आदि कई सामग्रियों से अभिषेक करना चाहिए और फिर पुनः जल या गंगाजल से शुद्धोदक स्नान करना चाहिए।

२. तत्पश्चात भगवान को सिंदूर एवं चावल से तिलक करना चाहिए।

३. तत्पश्चात श्वेत पुष्प, बिल्वपत्र, धतूरा, भाँग एवं बेर आदि अर्पण कर पूजन करना चाहिए।

४. तदुपरांत भगवान शिव का पंचाक्षरी मंत्र "ऊँ नमः शिवाय" अथवा महामृत्युंजय मंत्र का जाप करना चाहिए।

५. शिव-पार्वती की पूजा के बाद सावन के सोमवार की व्रत कथा सुननी चाहिए।

६. भगवान शिवजी आरती करने के बाद भोग लगाएं और घर परिवार में बांटने के पश्चात स्वयं ग्रहण करें।

७. पूजन के उपरांत ब्राह्मण (आचार्य, विप्र, द्विज, द्विजोत्तम) एवं निर्धन व्यक्ति को भोजन एवं दान-दक्षिणा देकर विदा करना चाहिए।

८. आप इस व्रत मे फलाहार नियम रख सकते हैं। परन्तु याद रखें केवल एक समय ही भोजन करना हैं।

इस प्रकार श्रद्धापूर्वक व्रत करने से भगवान भोलेनाथ एवं माता पार्वती प्रसन्न होकर मनवांछित फल देते हैं।

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-अतुल कृष्ण

कुंभ पर विशेष (आस्था, विश्वास एवं संस्कृतियों का संगम)

कुंभ

आस्था, विश्वास एवं संस्कृतियों के मिलन का पर्व है “कुंभ”। कुंभ का शाब्दिक अर्थ कलश से है, अर्थात् पवित्र कलश या अमृत कलश। कलश के मुख को भगवान विष्णु, गर्दन को रूद्र, आधार को ब्रम्हा, बीच के भाग को समस्त देवियों और अंदर के जल को संपूर्ण सागर का प्रतीक माना जाता है। यह चारों वेदों का संगम है।

इस प्रकार इसे सभ्यता का संगम भी कहा जाता है। कुम्भ ऊर्जा का स्त्रोत है। यह मनुष्य को पाप, पुण्य और प्रकाश, अंधकार से अवगत कराता है।

कुम्भ मेला भारत एवं विश्व के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक धरोहर का एक केन्द्र माना जाता है और करोड़ों तीर्थयात्री इसी आस्था से यहाँ इस पावन पर्व के दौरान पधारते हैं। कुम्भ वैश्विक पटल पर शांति और सामंजस्य का एक प्रतीक है। वर्ष 2017 में यूनेस्को द्वारा कुम्भ को ‘‘मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत’’ की प्रतिनिधि सूची पर मान्यता प्रदान की गयी है। अध्यात्मिकता का ज्ञान समृद्ध करते हुए, ज्योतिष, खगोल विज्ञान, कर्मकाण्ड, परंपरा और सामाजिक एवं सांस्कृतिक पद्धतियों एवं व्यवहार को प्रयागराज का कुम्भ प्रदर्शित करता है।

पौराणिक मान्यता

श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार देवासुर संग्राम के उपरांत दोनों पक्ष (देव एवं दानव) समुद्र मंथन के लिए राजी हुए हो गए। इस प्रकार समुद्र मंथन के लिए समुद्र में मंदराचल को स्थापित कर वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया एवं स्वयं भगवान श्रीविष्णु कच्छप अवतार लेकर मन्दराचल पर्वत को अपने पीठ पर रखकर उसका आधार बन गये। तत्पश्चात दोनों पक्ष अमृत-प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन करने लगे।
अमृत पाने की इच्छा से सभी बड़े जोश और वेग से मंथन कर रहे थे। सहसा तभी समुद्र में से कालकूट नामक भयंकर विष निकला। उस विष की अग्नि से दसों दिशाएँ जलने लगीं। समस्त प्राणियों में हाहाकार मच गया। तब देवताओं ने भगवान शिवजी की स्तुति की। जिसके फलस्वरूप भगवान शिवजी ने विष को ग्रहण किया और नीलकंठ कहलाये। समुद्र मंथन से क्रमशः चौदह: रत्न निकलें:-

1. कालकूट (हलाहल) 2. ऐरावत 3. कामधेनु 4. उच्चैःश्रवा 5. कौस्तुभमणि 6. कल्पवृक्ष 7. रम्भा नामक अप्सरा 8. लक्ष्मी 9. वारुणी मदिरा 10. चन्द्रमा 11. शारंग धनुष 12. शंख 13. गंधर्व 14. अमृत

एक सन्दर्भ में एक श्लोक प्रचलित हैं:-

लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुराधन्वन्तरिश्चन्द्रमाः। 
गावः कामदुहा सुरेश्वरगजो रम्भादिदेवांगनाः। 
अश्वः सप्तमुखो विषं हरिधनुः शंखोमृतं चाम्बुधेः।
रत्नानीह चतुर्दश प्रतिदिनं कुर्यात्सदा मंगलम्।

इस प्रकार मंथन से प्राप्त रत्नों को दोनों पक्षों में परस्पर बाँट लिया गया परन्तु जब धन्वन्तरि ने अमृत कलश देवताओं को दे दिया तो तदोउपरांत पुनः युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई। तब भगवान् विष्णु जी ने स्वयं मोहिनी रूप धारकर सबको अमृत-पान कराने की बात कही एवं अमृत कलश का दायित्व इंद्र-पुत्र जयंत को सौप दिया।

अमृत-कलश को प्राप्त कर जब जयंत दानवों से अमृत की रक्षा करने हेतु भागे तभी इसी क्रम में अमृत की बूंदे पृथ्वी पर चार स्थानों पर गिरी- हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन। क्योंकि भगवान विष्णु की आज्ञा से सूर्य, चन्द्र, शनि एवं बृहस्पति भी अमृत कलश की रक्षा कर रहे थे और विभिन्न राशियों (सिंह, कुम्भ एवं मेष) में विचरण के कारण वे सभी भी कुम्भ पर्व के द्योतक बने।

धार्मिक मान्यताएँ

सांदीपनि मुनि चरित्र स्तोत्र के अनुसार, महर्षि सांदीपनि काशी में रहते थे। एक बार प्रभास क्षेत्र से लौटते हुए वे उज्जैन आए। उस समय यहां कुंभ मेले का समय था। लेकिन उज्जैन में भयंकर अकाल के कारण साधु-संत बहुत परेशान हो गये । अतः महर्षि सांदीपनि ने तपस्या कर भगवान शिव जी को प्रसन्न किया, जिससे प्रभाव से अकाल समाप्त हो गया। साथ ही भगवान शिव जी ने महर्षि सांदीपनि से इसी स्थान पर रहकर विद्यार्थियों को शिक्षा देने के लिए कहा। आज भी उज्जैन में महर्षि सांदीपनि का आश्रम स्थित है।

अर्धकुंभ

अर्ध का अर्थ है आधा। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ का आयोजन होता है। 

सिंहस्थ कुंभ 

सिंहस्थ का संबंध सिंह राशि से है। सिंह राशि में बृहस्पति एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर उज्जैन में कुंभ का आयोजन होता है। इसके अलावा सिंह राशि में बृहस्पति के प्रवेश होने पर कुंभ पर्व का आयोजन गोदावरी के तट पर नासिक में होता है।

कुंभ में स्नान का महत्व

सहस्त्र कार्तिके स्नानं माघे स्नान शतानि च।
वैशाखे नर्मदाकोटिः कुंभस्नानेन तत्फलम्।।
अश्वमेघ सहस्त्राणि वाजवेयशतानि च।
लक्षं प्रदक्षिणा भूम्याः कुंभस्नानेन तत्फलम्।

अर्थ- कुंभ में किए गए एक स्नान का फल कार्तिक मास में किए गए हजार स्नान, माघ मास में किए गए सौ स्नान व वैशाख मास में नर्मदा में किए गए करोड़ों स्नानों के बराबर होता है। हजारों अश्वमेघ, सौ वाजपेय यज्ञों तथा एक लाख बार पृथ्वी की परिक्रमा करने से जो पुण्य मिलता है, वह कुंभ में एक स्नान करने से प्राप्त हो जाता है।

ज्योतिषीय महत्व

कुम्भपर्व पौराणिक आख्यानों से साथ-साथ खगोलीय विज्ञान ही है क्योंकि ग्रहों की विशेष स्थितियाँ के आधार पर ही कुम्भपर्व के काल का निर्धारण होता है।  कुम्भपर्व का योग सूर्य, चंद्रमा, गुरू और शनि के सम्बध में सुनिश्चित होता है।

स्कन्द पुराण अनुसार-

चन्द्रः प्रश्रवणाद्रक्षां सूर्यो विस्फोटनाद्दधौ।
दैत्येभ्यश्र गुरू रक्षां सौरिर्देवेन्द्रजाद् भयात्।।
सूर्येन्दुगुरूसंयोगस्य यद्राशौ यत्र वत्सरे।
सुधाकुम्भप्लवे भूमे कुम्भो भवति नान्यथा।।

अर्थात्:- जिस समय अमृतपूर्ण कुम्भ को लेकर देवताओं एवं दैत्यों में संघर्ष हुआ उस समय चंद्रमा ने उस अमृतकुम्भ से अमृत के छलकने से रक्षा की और सूर्य ने उस अमृत कुम्भ के टूटने से रक्षा की। देवगुरू बृहस्पति ने दैत्यों से तथा शनि ने इंद्रपुत्र जयन्त की रक्षा की। इसी लिए उस देव दैत्य कलह में जिन-जिन स्थानों में (हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन) जिस-जिस दिन सुधा कुम्भ छलका है उन्हीं-उन्हीं स्थलों में उन्हीं तिथियों में कुम्भपर्व होता है। देव-दैत्यों का युद्ध इस अमृत कुम्भ को लेकर 12 दिन तक 12 स्थानों में चला और उन 12 स्थलों में सुधा कुम्भ से अमृत छलका जिनमें पूर्वोक्त चार स्थल मृत्युलोक में है शेष आठ इस मृत्युलोक में न होकर अन्य लोकों में (स्वर्ग आदि लोकों में) माने जाते हैं। 12 वर्ष के मान का देवताओं का बारह दिन होता है। इसीलिए 12वें वर्ष ही सामान्यतया प्रत्येक स्थान में कुम्भपर्व की स्थिति बनती है।

वृष राशि में गुरू मकर राशि में सूर्य तथा चंद्रमा माघ मास में अमावस्या के दिन कुम्भपर्व की स्थिति देखी गयी है। इसलिए प्रयाग के कुम्भपर्व के विषय में- "वृषराषिगतेजीवे" के समान ही "मेषराशिगतेजीवे" ऐसा उल्लेख मिलता है।
कुम्भपर्वों का जो ग्रह योग प्राप्त होता है वह लगभग सभी जगह सामान्य रूप से बारहवे वर्ष प्राप्त होता है। परन्तु कभी-कभी ग्यारहवें वर्ष भी कुम्भपर्व की स्थिति देखी जाती है। यह विषय अत्यन्त विचारणीय हैं, सामान्यतया सूर्य चंद्र की स्थिति को प्रतिवर्ष चारों स्थलों में स्वतः बनती है। उसके लिए प्रयाग में कुम्भपर्व के समय वृष के गुरू रहते हैं जिनका स्वामी शुक्र है। शुक्रग्रह ऐश्वर्य भोग एवं स्नेह का सम्वर्धक है। गुरू ग्रह के इस राशि में स्थित होने से मानव के वैचारिक भावों में परम सात्विकता का संचार होता है जिससे स्नेह, भोग एवं ऐश्वर्य की सम्प्राप्ति के विचार में जो सात्विकता प्रवाहित होती है उससे उनके रजोगुणी दोष स्वतः विलीन होते हैं। तथैव मकर राशिगत सूर्य समस्त क्रियाओं में पटुता एवमेव मकर राशिस्थ चंद्र परम ऐश्वर्य को प्राप्त कराता है। फलतः ज्ञान एवं भक्ति की धारा स्वरूप गंगा एवं यमुना के इस पवित्र संगम क्षेत्र में चारो पुरूषार्थों की सिद्धि अल्पप्रयास में ही श्रद्धालु मानव के समीपस्थ दिखाई देती है।

प्रत्येक ग्रह अपने-अपने राशि को एक सुनिश्चित समय में भोगता है जैसे सूर्य एक राशि को 30 दिन 26 घडी 17 पल 5 विपल का समय लेता है एवं चंद्रमा एक राशि का भाग लगभग 2.5 दिन में पूरा करता है तथैव बृहस्पति एक राशि का भोग 361 दिन 1 घडी 36 पल में करता है। स्थूल गणना के आधार पर वर्ष भर का काल बृहस्पति का मान लिया जाता है। किन्तु सौरवर्ष के अनुसार एक वर्ष में चार दिन 13 घडी एवं 55 पल का अन्तर बार्हस्पत्य वर्ष से होता है जो 12 वर्ष में 50 दिन 47 घडी का अन्तर पड़ता है और यही 84 वर्षों में 355 दिन 29 घडी का अन्तर बन जाता है। इसीलिए 50वें वर्ष जब कुम्भपर्व आता है तब वह 11वें वर्ष ही पड़ जाता है।

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-अतुल कृष्ण

Wednesday, November 7, 2018

दीपावली पर विशेष (व्रत विधि, नियम एवं कथा)

दीपावली पर विशेष (व्रत विधि, नियम एवं कथा)

     दीपावली हिंदू धर्म का सबसे पवित्र त्योहार है। दीपावली उत्सव पुरे भारत में मुख्य रूप से मनाया जाता है। भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी दिवाली बहुत ही धूमधाम से मनाई जाती है। दिवाली या दीपावली का शाब्दिक अर्थ है दीयों को श्रृंखला में लगाना। मान्यता है कि यह दीये अंधकरा पर प्रकाश, असत्य पर सत्य की जीत को दर्शाते हैं। दिवाली को अन्य भाषाओं में अलग-अलग नामों से जाना जाता है, बंगाली में 'दीपाबॉली' नेपाली में 'तिहार' और मारवाड़ी में 'दियाळी'।

दीपावली व्रत विधि

     दीपावली व्रत के दिन प्रात: उठकर स्नान करें और पूजा पाठ करके अपनी संतान की दीर्घायु एवं सुखमय जीवन हेतु कामना करते हुए, ऐसा संकल्प करें। रोली, इत्र, कलावे, पान, सुपारी, फल-फूल, दूध, दही, घी, धुप, दीप, कपूर, शहद, दियासलाई, जल-पात्र, गणेश-लक्ष्मी, लाल वस्त्र, मिठाई, नारियल, सिन्दूर, मेवा एवं गंगा जल, आगे अपनी वंश-परंपरा के अनुसार अन्य वस्तुएं।

     कार्तिक मास की अमावस्या को दीपावली व्रत एवं पूजन किया जाता है। यह त्यौहार सभी जातियों का होता है क्योंकि श्री महालक्ष्मी जी को प्रसन्न करने को इसे सभी मानते हैं। इसमें गणेश-लक्ष्मी के पूजन सा साथ-साथ भगवान विष्णु, कुबेर, इन्द्र और सरस्वती एवं ठाकुर जी की भी पूजा की जाती है। व्यापारी वर्ग वही-खाते कमल-दावत आदि की भी पूजा करते हैं। उपरोक्त लिखे समस्त देवी-देवताओं का षोडष प्रकार से पूजन किया जाता है। खील-बताशे, मीठा आदि का भोग लगाना चाहिए एवं हवन आदि करना चाहिए। लक्ष्मी जी का अपने सोने-चाँदी के जेवरों तथा नकद रूपये आदि भी रखकर पूजन करना चाहिए। चौकी पर लक्ष्मी व गणेश की मूर्तियां इस प्रकार रखें कि उनका मुख पूर्व या पश्चिम में रहे। लक्ष्मीजी, गणेशजी की दाहिनी ओर रहें। कलश को लक्ष्मीजी के पास चावलों पर रखें। नारियल को लाल वस्त्र में इस प्रकार लपेटें कि नारियल का अग्रभाग दिखाई देता रहे व इसे कलश पर रखें। यह कलश वरुण का प्रतीक है।

     26 छोटे दीपक जलाकर खील-बताशों से पूजन करना चाहिए। लक्ष्मी जी और गणेश जी के पास दो बड़े दीपक जलने चाहिए। एक में घी भरें व दूसरे में तेल। एक दीपक चौकी के दाईं ओर रखें व दूसरा मूर्तियों के चरणों में। इसके अतिरिक्त एक दीपक गणेशजी के पास रखें। मूर्तियों वाली चौकी के सामने छोटी चौकी रखकर उस पर लाल वस्त्र बिछाएं। कलश की ओर एक मुट्ठी चावल से लाल वस्त्र पर नवग्रह की प्रतीक नौ ढेरियां बनाएं। गणेशजी की ओर चावल की सोलह ढेरियां बनाएं। ये सोलह मातृका की प्रतीक हैं। नवग्रह व षोडश मातृका के बीच स्वस्तिक का चिह्न बनाएं। इसके बीच में सुपारी रखें व चारों कोनों पर चावल की ढेरी। सबसे ऊपर बीचोंबीच ॐ लिखें। छोटी चौकी के सामने तीन थाली व जल भरकर कलश रखें। इस दिन तेल के दीपक से काजल पालकर सभी को लगाना चाहिए। पूजन के उपरांत अधिक से अधिक श्रद्धा-भाव से माता-पिता को भेंट देकर उनको प्रणाम करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। साथ ही इस दिन ब्राह्मणों को भोजन एवं दक्षिणा देकर विदा करना चाहिए। पूजन के पश्चात् स्त्री अन्न जल ग्रहण करें। प्रातः उठकर औरतों को पूप बजाकर दरिद्र निकलना चाहिए। इस प्रकार विधि से पूजन करने से घर में लक्ष्मी जी पधारती है।

 दीपावली का महत्व 

1. जब भगवान विष्णु ने वामन रूप धारण करके राजा बलि को पटल भेजा था तब देवराज इंद्रा ने प्रसन्न होकर घी के दीप जला करके दीपावली मनाई थी।
2. इसी दिन समुन्द्र मंथन करने पर लक्ष्मी जी प्रकट हुई थीं और श्री विष्णु भगवन को अपना पति बनाया था।
3. जब भगवान श्री राम लंका विजय करके अयोध्या में लौटने पर उनका राज्य-तिलक हुआ था तो अयोध्या वासियों ने घर-घर घी के दीप जला करके दीपावली मनाई।
4. इसी दिन श्री वीर विक्रमादित्य जी ने विक्रमी सम्वत का निर्माण किया।
5. इसी दिन महर्षि दयानद सरस्वती जी को स्वर्ग का अधिकार मिला था तो समस्त देवताओं ने स्वर्ग में घी के दीप जलाकर दीपावली मनाई थी।

गणेश जी की कथा

      एक बुढ़िया थी। वह बहुत ही ग़रीब और अंधी थीं। उसका एक बेटा और बहू थे। वह बुढ़िया सदैव गणेश जी की पूजा किया करती थी। एक दिन गणेश जी सम्मुख प्रकट होकर उस बुढ़िया से बोले-बुढ़िया मां! तू जो चाहे सो मांग ले। बुढ़िया बोली- मुझसे तो मांगना नहीं आता। कैसे और क्या मांगू? तब गणेशजी बोले - अपने बहू-बेटे से पूछकर मांग ले। तब बुढ़िया ने अपने बेटे से कहा- गणेशजी कहते हैं तू कुछ मांग ले बता मैं क्या मांगू? पुत्र ने कहा- मां! तू धन मांग ले। बहू से पूछा तो बहू ने कहा- नाती मांग ले। तब बुढ़िया ने सोचा कि ये तो अपने-अपने मतलब की बात कह रहे हैं। अत: उस बुढ़िया ने पड़ोसिनों से पूछा, तो उन्होंने कहा- बुढ़िया! तू तो थोड़े दिन जीएगी, क्यों तू धन मांगे और क्यों नाती मांगे। तू तो अपनी आंखों की रोशनी मांग ले, जिससे तेरी ज़िन्दगी आराम से कट जाए।

     इस पर बुढ़िया बोली- यदि आप प्रसन्न हैं, तो मुझे नौ करोड़ की माया दें, निरोगी काया दें, अमर सुहाग दें, आंखों की रोशनी दें, नाती दें, पोता, दें और सब परिवार को सुख दें और अंत में मोक्ष दें। यह सुनकर तब गणेशजी बोले- बुढ़िया मां! तुने तो हमें ठग दिया। फिर भी जो तूने मांगा है वचन के अनुसार सब तुझे मिलेगा। और यह कहकर गणेशजी अंतर्धान हो गए। उधर बुढ़िया माँ ने जो कुछ मांगा वह सबकुछ मिल गया। हे गणेशजी महाराज! जैसे तुमने उस बुढ़िया माँ को सबकुछ दिया, वैसे ही सबको देना।

लक्ष्मी जी की कथा

     प्राचीन समय में एक नगर में एक साहूकार था, उसकी एक लड़की थी। वह नित्य पीपल देवता की पूजा करती थी। उसने देखा की श्री महालक्ष्मी जी उसी पीपल से निकला करती है।  एक दिन लक्ष्मी जी ने साहूकार की बेटी से कहा कि मैं तुझ पर बहुत प्रसन्न हूँ इस लिए तू मेरी सहेली बनना स्वीकार कर लें। लड़की ने कहा की मैं अपने माता-पिता से पूछ कर बताऊँगी । यह बात उसने अपने पिता को बताई, तो पिता ने ‘हां’ कर दी। दूसरे दिन से साहूकार की बेटी ने सहेली बनना स्वीकार कर लिया।

     दोनों अच्छे मित्रों की तरह आपस में बातचीत करने लगे। एक दिन लक्ष्मीजी साहूकार की बेटी को अपने घर ले गई। अपने घर में लक्ष्मी जी उसका दिल खोल कर स्वागत किया। उसकी खूब खातिर की। उसे अनेक प्रकार के भोजन परोसे। मेहमान नवाजी के बाद जब साहूकार की बेटी लौटने लगी तो, लक्ष्मी जी ने प्रश्न किया कि अब तुम मुझे कब अपने घर बुलाओगी। साहूकार की बेटी ने लक्ष्मी जी को अपने घर बुला तो लिया, परन्तु अपने घर की आर्थिक स्थिति देख कर वह उदास हो गई। उसे डर लग रहा था कि क्या वह, लक्ष्मी जी का अच्छे से स्वागत कर पायेगी।

     साहूकार ने अपनी बेटी को उदास देखा तो वह समझ गया, उसने अपनी बेटी को समझाया, कि तू फौरन मिट्टी से चौका लगा कर साफ-सफाई कर। चार बत्ती के मुख वाला दिया जला और लक्ष्मी जी का नाम लेकर बैठ जा। उसी समय एक चील किसी रानी का नौलखा हार लेकर उसके पास डाल गया। साहूकार की बेटी ने उस हार को बेचकर भोजन की तैयारी की। थोड़ी देर में श्री गणेश के साथ लक्ष्मी जी उसके घर आ गई। साहूकार की बेटी ने दोनों की खूब सेवा की, उसकी खातिर से लक्ष्मी जी बहुत प्रसन्न हुई। और साहूकार बहुत अमीर बन गया।

लक्ष्मी जी की आरती

ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता।
तुम को निश दिन सेवत, हर विष्णु विधाता।।
उमा रमा ब्रह्माणी, तुम ही जग माता।
सूर्य चंद्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता।।
दुर्गा रूप निरंजनि, सुख सम्पति दाता।
जो कोई तुमको ध्याता, ऋद्धि सिद्धि धन पाता।।
तुम पाताल निवासिनी, तुम ही शुभ दाता।
कर्म प्रभाव प्रकाशिनी, भव निधि की त्राता।।
जिस घर तुम रहती सब सद्‍गुण आता।
सब संभव हो जाता, मन नहीं घबराता।।
तुम बिन यज्ञ न होते, वस्त्र न कोई पाता।
खान पान का वैभव, सब तुमसे आता।।
शुभ गुण मंदिर सुंदर, क्षीरोदधि जाता।
रत्न चतुर्दश तुम बिन, कोई नहीं पाता।।
महालक्ष्मीजी की आरती, जो कोई नर गाता।
उर आनंद समाता, पाप उतर जाता।।

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-अतुल कृष्ण

Wednesday, October 31, 2018

अहोई अष्टमी पर विशेष (व्रत विधि, नियम एवं कथा)


अहोई अष्टमी (व्रत विधि, नियम एवं कथा)

     अहोई अष्टमी का उत्तम पर्व उत्तर भारत के उत्तरप्रदेश, पंजाब, राजस्थान और गुजरात में मुख्य रूप से मनाया जाता है। भारत ही नहीं वरन विदेशों में भी धर्म प्रेमी इस व्रत को मनाते है। संतान के जीवन में सुख-समृद्धि की कामना हेतु कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी को अहोई अष्टमी का व्रत किया जाता है।  इस दिन महिलाएं निर्जला व्रत करती हैं। यह व्रत खासतौर से संतान प्राप्ति और संतान की खुशहाली के लिए रखा जाता है। इस दिन अहोई माता की पूजा की जाती है। माताएं अहोई अष्टमी के व्रत में दिन भर उपवास रखती हैं और सायंकाल तारे दिखाई देने के समय अहोई माता का पूजन किया जाता है। तारों की पूजा कर तारों को करवा से अर्ध्य भी दिया जाता है। यह अहोई गेरू आदि के द्वारा दीवार पर बनाई जाती है अथवा किसी मोटे वस्त्र पर अहोई काढ़कर पूजा के समय उसे दीवार पर टांग दिया जाता है। इस दिन धोबी मारन लीला का भी मंचन होता है, जिसमें श्री कृष्ण द्वारा कंस के भेजे धोबी का वध प्रदर्शन किया जाता है।

अहोई अष्टमी व्रत विधि

1. अहोई अष्टमी व्रत के दिन प्रात: उठकर स्नान करें और पूजा पाठ करके अपनी संतान की दीर्घायु एवं सुखमय जीवन हेतु कामना करते हुए, मैं अहोई माता का व्रत कर रही हूँ, ऐसा संकल्प करें।
2. अहोई माता मेरी संतान को दीर्घायु, स्वस्थ एवं सुखी रखे। माता पार्वती की पूजा करें।
3. अहोई माता की पूजा के लिए गेरू से दीवार पर अहोई माता का चित्र बनाएँ और साथ ही सेह और उसके सात पुत्रों का चित्र बनाएँ।
4. संध्या काल में इन चित्रों की पूजा करें।
5. अहोई पूजा में एक अन्य विधान यह भी है कि चांदी की अहोई बनाई जाती है जिसे सेह या स्याऊ कहते हैं। इस सेह की पूजा रोली, अक्षत, दूध भात से की जाती है। पूजा चाहे आप जिस विधि से करें लेकिन दोनों में ही पूजा के लिए एक कलश में जल भर कर रख लें।
6. पूजा के बाद अहोई माता की कथा सुने और सुनाएं।
7. पूजा के पश्चात् सासू-मां के पैर छूएं और उनका आर्शीवाद प्राप्त करें।
8. तारों की पूजा करें और जल चढ़ायें।
9. इसके पश्चात् व्रती अन्न जल ग्रहण करें।

"तारों को करवे से अर्ध्य देने के उपरांत उस करवे (कलश) को भरकर पूर्व दिशा में रख दें तथा दीपावली के दिन सुबह को अपने बच्चों को इस कलश के जल से स्नान करायें। इस प्रकार यह क्रिया अत्यंत शुभ मानी जाती है।"अतुल कृष्ण

अहोई अष्टमी का उजमन

जिस सौभाग्यवती स्त्री के पुत्र हुआ हो या पुत्र का विवाह हुआ हो उस स्त्री को अहोई माता का उजमन करना चाहिए। उस दिन एक थाली में सात जगह चार-चार पूड़ियों पर थोड़ा-थोड़ा सीरा (हलवा) रखें।  इसके साथ एक तीयल (साड़ी) तथा उस पर श्रद्धा अनुसार रूपये रखकर थाली के चारों ओर हाथ फेरकर श्रद्धा और सम्मान के साथ सासू के पाँव पकड़कर उन्हें दें। सासू जी साड़ी और रुपयों को अपने पास रख लें बाकी हलवा और पुरियों को बाँट दें। इसको ही बायना कहते हैं। साथ ही थोड़ा बायना अपनी बहन-बेटी के घर भी भिजवा दें।

अहोई अष्टमी व्रत प्रथम कथा

     प्राचीनकाल में किसी नगर में एक साहूकार रहता था। उसके सात पुत्र थे। दीपावली से पहले साहूकार की स्त्री घर की लीपा-पोती के लिए मिट्टी लेने को खदान में गई और खदान में कुदाल से जब मिट्टी खोदने लगी तो देवयोग से उस ही जगह एक सेह की मांद थी। सहसा उस स्त्री के हाथ से कुल्हाड़ी सेह के बच्चे के लग गयी जिससे सेह का बच्चा उसी क्षण मर गया। यह हत्या हुई देखकर उस स्त्री को बहुत दुःख हुआ। परन्तु अब क्या हो सकता था? वह स्त्री पश्चाताप करती हुई अपने घर गई।

     कुछ दिन के बाद उस स्त्री का बच्चा मर गया। फिर दूसरा और तीसरा अर्थात एक वर्ष में उसके सातों लड़के मर गये। इस पर वह स्त्री रात-दिन अत्यंत दुखित रहने लगी। एक दिन उसने अपने पड़ोस की स्त्रियों से रो-रोकर कहा कि मैने जान-बूझकर कोई पाप नहीं किया, हाँ एक बार मैं मिट्टी खोदने को खदान में गई थी। जब मिट्टी खोदने में सहसा मेरी कुदाली से एक सेह का बच्चा मर गया था, तभी से एक वर्ष के भीतर-भीतर सातों लड़के मर गये।

     यह सुनकर उन स्त्रियों ने धैर्य देते हुए कहा कि तुमने जो यह बात हम सबको सुनाकर पश्चाताप किया है इससे तेरा आधा पाप तो नष्ट हो गया। सो अब तुम उसी अष्टमी (भगवती) की शरण लेकर सेह और सेह के बच्चों का चित्र बनाकर उसकी पूजा किया करो और छमा याचना करो। ईश्वर की कृपा से तुम्हारा समस्त पाप धुल जाएगा और तुम्हें पहले की तरह से ही पुत्रों की प्राप्ति हो जाएगी। उन सबकी बात मानकर उस स्त्री ने कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को व्रत किया तथा प्रत्येक वर्ष व्रत पूजन करती रही। फिर उसे ईश्वर की कृपा से सातों पुत्र प्राप्त हुए। तभी से इस व्रत की परंपरा चली रही है।

अहोई अष्टमी व्रत द्वितीय कथा

     प्राचीन काल में किसी नगर में एक साहुकार रहता था, जिसके सात बेटे और सात बहुएं थीं। साहुकार की एक बेटी भी थी जो दीपावली में ससुराल से मायके आई थी। दीपावली पर घर को लीपने के लिए सातों बहुएं मिट्टी लाने जंगल में गईं तो ननद भी उनके साथ चली गई। साहुकार की बेटी जहां मिट्टी खोद रही थी उस स्थान पर स्याऊ (सेह) अपने बेटे के साथ रहती थी। मिट्टी खोदते समय गलती से  स्याऊ का एक बच्चा मर गया। स्याऊ माता ने कहा कि तूने मेरा बच्चा मार कर मुझे निपुत्र कर दिया इसलिए में तेरी कोख बांधूंगी। स्याऊ के इस तरह के श्राप से साहूकार की बेटी बड़ी दुखी हुई और अपनी सातों भाभियों से एक-एक कर विनती करने लगी कि तुमने से कोई मेरे बदले अपनी कोख बंधवा लें। छः भाभियों ने अपनी कोख बंधवाने से इनकार कर दिया। परन्तु सबसे छोटी भाभी सोचने लगी की यदि मैं अपनी ननद का कहना नहीं मानूँगी तो कहीं सासु जी मुझसे रुष्ठ न हो जायें। तब ऐसा विचार कर उसने ननद के बदले अपनी कोख बँधवाली। इससे जब उसके लड़का हुआ तो वह सातवें दिन मर गया। इसी प्रकार उसके सात पुत्र हुए और  एक-एक कर सात पुत्रों की मृत्यु हो गई। 
     तब एक दिन उसने ज्योतिषी को बुलवाकर पूछा की महाराज जाने क्या बात है, मेरे जो संतान होती है वो सातवें दिन मर जाती है, सो इसका क्या कारण है? तब पंडित जी बोले कि देवी तुम सुरही गाय की पूजा किया करो। क्योंकि सुरही गाय स्याऊ माता की भायली है वो तेरी कोख छोड़े तो तभी तुम्हारा बच्चा जी सकता है। 
     इसके बाद से वह बहु नित्य प्रति प्रातः काल उठ करके चुपचाप सुरही गाय के नीचे सफाई करके अनेक प्रकार से सेवा करती। गऊ माता यह देखकर कि साहूकार के बेटे की बहु नित्य प्रति मेरी बहुत सेवा करती है। गऊ माता उससे बोली कि तू मेरी बहुत सेवा करती है, इसलिए मेरी आत्मा तुझसे बहुत प्रसन्न है, अतः मांग मुझसे क्या माँगती है? साहूकार के बेटे की बहु बोली कि स्याऊ माता तुम्हारी भायली है और उन्होंने मेरी कोख बांध राखी है, सो आप कृपा करके अपनी भायली से मेरी कोख खुलवा दें। उस दुखयारी की यह बातें सुन कर गौ माता बोली अच्छा ठीक है, मैं तेरे लिए यह प्रयत्न करुँगी। एक दिन गौ माता उसे साथ ले सात समुन्दर पार अपनी भायली के पास चल दी। मार्ग में धुप बहुत कड़ी पड़ रही थी, वे दोनों एक पेड़ के नीचे छाय में बैठ गयीं। थोड़ी देर में वहाँ एक साँप आया और उसी वृक्ष पर गरुड़ पंखनी ने बच्चे दे रखे थे वो सर्प उन बच्चों को डसने लगा। तब साहूकार की बहु ने उस सर्प को मार करके ढाल के निचे दबा दिया और उन बच्चों को बचा लिया। थोड़ी देर में गरुड़ पंखनी आई तो वहाँ खून पड़ा देखकर साहूकार की बहु के चोंच मरने लगी। तब वह बहु बोली कि मैंने ही तो तेरे बच्चों की सर्प को मरकर रक्षा की है और तू मेरी ही दुश्मन हो गई। साहूकार की बहु की बात सुन करके गरुड़ पंखनी प्रसन्न होकर बोली तूने मेरे बच्चे बचाये हैं, इसलिए मॉंग क्या माँगती है? तब साहूकार की बहु बोली कि हमें सात समुन्दर पार स्याऊ माता के पास पंहुचा दें। तब गरुड़ पंखनी ने उन दोनों को अपनी पीठ पर बैठाकर लम्बी उड़ान भरकर उसे सात समुन्दर पार स्याऊ माता के पास पहुँचा दिया। 
     स्याऊ माता अपनी भायली गौ माता को देखकर बहुत प्रसन्न हुई और बोली भायली आ आज तो बहुत दिनों में मिली है। फिर बोली कि बहन मेरे सिर में जुएँ बहुत पड़ गई हैं। तब सुरही गऊ बोली कि मेरे साथ मेरी भगतनी आई है ये तेरी सब जुएँ निकल देगी। आज्ञा पाते ही साहूकारनी ने स्याऊ माता की चुन-चुनकर सब जुएँ निकाल दीं। स्याऊ माता बोली कि तूने आज मुझे बहुत आराम दिया है, इसलिए मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, सो आज जो चाहे सो माँग ले, मैं तुझे दूंगीं। तब साहूकारनी बोली कि वचन दो तो माँगूँ। स्याऊ माता बोली- अच्छा वचन दिया और कहा की यदि मैं अपने वचन से फिरूंगी तो धोबी कुण्ड की कंकरी हो जायूँ। तब साहूकार की बहु बोली कि मेरी कोख तुम्हारे पास बँधी पड़ी है, सो कृपा करके खोल दो। उसकी यह बात सुनकर स्याऊ माता बोली तूने तो मुझे ठग लिया। मैं तेरी कोख कभी नहीं खोलती, परन्तु अब तो खोलनी ही पड़ेगी। जा तेरे घर तुझे तेरे सात लड़के और उन सातों की सात बहुएं मिल जाएँगी। तू घर जा करके मेरे सात उजमन करियों। सात अहोई बहकर सात कढ़ाई कर दीजो। 
     यह सुन जब वह लौट करके घर पहुंची तो वहाँ सात बेटे और सातों की बहुएं घर बैठे मिले। यह देखकर वह बहुत खुश हुई। तभी उसने सात अहोई बनाई और सात उजमन किये तथा सात ही कढ़ाई करी। दिवाली के दिन उनकी जिठानियाँ कहने लगीं कि जल्दी-जल्दी अपनी चौका पूजा कर लो अन्यथा छोटी बहु बच्चों की याद करके रोने-धोने लगेगी। थोड़ी देर में उन्होंने अपने बच्चों से कहा कि चाची के घर जाकर के देख के आओ कि आज वो अभी तक क्यों नहीं रोई? बच्चों ने आकर कहा कि चाची अहोई बना रही है और वो तो खूब उजमन कर रही है। यह सुनते ही उनकी जेठानियाँ दौड़कर उसके घर गई और जाकर कहा कि तूने अपनी कोख कैसे छुड़वाई है? वह बोली कि तुमने तो अपनी कोख बंधवाने से इंकार कर दिया पर मैंने अपनी छोटी ननद का ख्याल करके अपनी कोख बांधली थी। अब स्याऊ माता ने मुझ पर कृपा करके मेरी कोख खोल दी, जिस प्रकार मेरी कोख खोली है उसी प्रकार संसार की सभी नारियों की कोख खोल देना। 
     अतः हे स्याऊ माता सभी सुनने वाली तथा हुंकारा भरने वालियों के सब परिवार की नारियों की कोख खोल देना। यही हम सबकी तुमसे विनती है।

अहोई अष्टमी की आरती

जय अहोई माता जय अहोई माता।
तुमको निसदिन ध्यावत हरी विष्णु धाता।।1।।
ब्रम्हाणी रुद्राणी कमला तू ही है जग दाता।
जो कोई तुमको ध्यावत नित मंगल पाता।।2।।
तू ही है पाताल बसंती तू ही है सुख दाता।
कर्म प्रभाव प्रकाशक जगनिधि से त्राता।।3।।
जिस घर थारो वास वही में गुण आता।
कर सके सोई कर ले मन नहीं घबराता।।4।।
तुम बिन सुख होवे पुत्र कोई पता।
खान पान का वैभव तुम बिन नहीं आता।।5।।
शुभ गुण सुन्दर युक्ता क्षीर निधि जाता।
रतन चतुर्दश तोंकू कोई नहीं पाता।।6।।
श्री अहोई माँ की आरती जो कोई गाता।
उर उमंग अति उपजे पाप उतर जाता।।6।।

आपको अगर मेरा ब्लॉग अच्छा लगा तो लिखे करे, कमेंट करे, सब्सक्राइब करे॥ 

-अतुल कृष्ण