Thursday, December 26, 2019

संस्कृत सुभाषितानि

संस्कृत सुभाषितानि

1. उद्यमेनैव सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथै: ।
    न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा: ॥

अनुवाद:- प्रयत्न करने से ही कार्य पूरा होता है न कि चाहने मात्र से, सोते हुए शेर के मुँह में अपने आप (भोजन बन कर) जानवर नहीं घुसते ।

Only with industry and effort are works done. Animals never themselves enter lion's mouth.

2. जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः । 
    स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च ॥ - (  हितोपदेश, सुहृद्भेद)

अनुवाद:- जल की बूँदें गिरने से जैसे धीरे-धीरे घडा भर जाता है; उसी प्रकार, सभी विद्या, गुण-धर्म और सम्पदा धीरे-धीरे अर्जित होती हैं ।

With each drop of water the pitcher gradually gets filled. Similarly knowledge, merit and wealth are acquired.

3. विवाहात पूर्वं नेत्रे आवृते कुरु तत्पश्चात अर्धावृतं कुरु ।

अनुवाद:- विवाह से पहले अपनी आँखें पूरी खुली और विवाह के बाद आधी खुली रखो ।

Before marriage, keep your eyes fully open, after marriage keep them half open only.

4. अपि स्वर्णमयी लंका न मे रोचते लक्ष्मण ।
    जननि जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसि ॥

अनुवाद:- हे लक्ष्मण ! मुझे सोने की लंका भी नहीं लुभाती, जन्म देने वाली जन्मभूमि मेरे लिये स्वर्ग से भी अधिक श्रेष्ठ है ।

Even Lanka is made of gold, it doesn't attract me O Lakshman, (Who gave me birth) my mother birthplace is dearer to me then heaven.

5. प्रियो भवति दानेन प्रियवादेन चापरः । 
    मन्त्रंमूलबलेनान्यो यः प्रियः प्रिय एव सः ॥

अनुवाद:- कुछ लोग उपहार देने पर प्रिय बनते हैं जबकि कुछ मनोहर बातों से, कुछ अन्य मन्त्रबल से प्रिय बनते हैं, पर जिन्हें आप प्रिय हैं, वो आपके प्रिय ही हैं (बिना कुछ किये ही).

People remain dear to us either by receiving gifts or by listening pleasing words. Some other can be made dear by reciting spells but who is genuinely dear to us, He/She will remain close to us (without above said techniques).

6. आचार्यात् पादमादते पादं शिष्यः स्वमेधया । 
    पादं सब्रह्मचारिभ्यः पादं कालक्रमेण च ॥ 

अनुवाद:- एक पाद शिक्षा आचार्य से, एक पाद शिष्य की अपनी मेधा से; एक पाद अपने जैसे ब्रह्मचारियों से और एक पाद शिक्षा समय के साथ मिलती है । यहाँ पाद से अर्थ Quadrant (वृत्त के चतुर्थ) भाग से है ।

A student learns a quarter from teacher, a quarter from own intelligence, a quarter from fellow students, and the rest in course of time.

7. विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम् । 
    पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम् ||

अनुवाद:- विद्या से विनय आती है, विनय से योग्यता आती है । योग्यता से धन आता है धन से धर्म और उसके बाद सुख आता है ।

Knowledge gives modesty, through modesty comes worthiness. By worthiness one gets prosperity and from prosperity faith/ virtue and then there is happiness.

8. उष्ट्राणां विवाहेषु , गीतं गायन्ति गर्दभाः । 
    परस्परं प्रशंसन्ति , अहो रूपं अहो ध्वनिः ।।

अनुवाद:- ऊंटों के विवाह में, गधे गीत गाते हैं । एक दूसरे की बढाई करते हैं, वाह क्या सुंदरता है, वाह क्या गाना है ॥

In camel's marriage ceremony, Donkeys are singing songs. They admire each other by saying Wow great beauty! Wow great singing.

9. अभिवादनशीलस्य नित्यम् वृद्धोपसेविनः । 
    चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम् ॥

अनुवाद:- जो प्रतिदिन बडों को अभिवादन और सेवा करता है, उसकी आयु, विद्या, यश और बल ये चार बढते हैं।

He who respects and do service to elders/ old people. Four of his things keep growing, His age, knowledge, fame and power.

10. नाभिषेको न च संस्कारः, सिंहस्य कृयते मृगैः । 
      विक्रमार्जित सत्वस्य, स्व्यमेव मृगेन्द्रता ॥

अनुवाद:- जानवरों ने शेर का ना कोई अभिषेक किया है ना कोई संस्कार । उसने (शेर ने) अपने आप पराक्रम से अपने आप को जानवरों का राजा बनाया है ।

Animals neither do coronation, nor any ritual for Lion. Lion himself by his valor becomes King of all animals.

11. काकचेष्टा वकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च | 
     अल्पाहारी गृह्त्यागी विद्यार्थी पंचलक्षणम् ।।

अनुवाद:- कौवे जैसा प्रयत्न, बगुले जैसा ध्यान और कुत्ते जैसी नींद, कम खाने वाला, घर छोडने वाला, ये पांच विद्यार्थी के लक्षण हैं ।

Efforts like a crow, concentration like a heron and sleep like a dog, little diet, who sacrifices his home, these are five virtues of a scholar.

12. सुखार्थी वा त्यजेत विद्या , विद्यार्थी वा त्यजेत सुखम । 
      सुखार्थिनः कुतो विद्या , विद्यार्थिनः कुतो सुखम ॥

अनुवाद:- सुख चाहते हो तो विद्या त्याग देना चाहिये, अगर विद्या चाहते हो तो सुख छोड देना चहिये । सुख ढूंढ्ने वाले को विद्या कहाँ, विद्यार्थी को सुख कहाँ ।

If you are seeking pleasure then give up search for knowledge, If you are a scholar then give up pleasure. There is no knowledge for pleasure seeker and no pleasure for a scholar.

13. सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् , न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् । 
      प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , एष धर्मः सनातन: ॥

अनुवाद:- सत्य बोलना चाहिये, प्रिय बोलना चाहिये, किन्तु अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिये । झूठ प्रिय हो तब भी नहीं बोलना चाहिये यही सनातन धर्म है ।

Tell the truth, tell sweet words But do not tell offensive truth, Do not tell a lie even if it is sweet, This is the eternal virtue.

14. अष्टादस पुराणेषु , व्यासस्य वचनं द्वयम् । 
      परोपकारः पुण्याय , पापाय परपीडनम् ॥

अनुवाद:- अट्ठारह पुराणों में व्यास के दो ही वचन हैं, पुण्य के लिये परोपकार है और पाप के लिये दूसरों को दुःख ।

In all of 18 Puranas, There are only two sentences from Vyas. Philanthropy/ charity (Service for others) is to get virtue and hurt others to get sins.

15. पिबन्ति नद्यः स्वमेय नोदकं , स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः । 
      धाराधरो वर्षति नात्महेतवे , परोपकाराय सतां विभूतयः ।।

अनुवाद:- नदियाँ स्वयं अपना पानी नहीं पीती हैं, वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते हैं। बादल अपने लिये वर्षा नहीं करते हैं, सन्त परोपकार के लिये होते हैं ।

Rivers don't drink their own waters, Trees don't eat their own fruits. Clouds do not rain for themselves. Saints/ Good people are for others good.

16. येषां न विद्या न तपो न दानं , ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । 
      ते मर्त्यलोके भुवि भारभूताः , मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥

अनुवाद:- जिसके पास न विद्या है, न तप है, न दान है , न ज्ञान है , न शील है , न गुण है और न धर्म है ; वे मृत्युलोक पृथ्वी पर भार होते है और मनुष्य रूप तो हैं पर पशु की तरह चरते हैं (जीवन व्यतीत करते हैं ) ।

They who neither have knowledge nor austerity, neither wisdom nor morals, neither skills nor virtues. They are burden on this earth and are animals in human form spending time.

17. धनं तावदसुलभं लब्धं कृचछेण रक्ष्यते।
      लब्धनाशो यथा मृत्युस्तस्मादेतन्न चिन्तयेत्॥

अनुवाद:- पहले तो धन का मिलना कठिन और मिल भी जाये तो फिर उसकी रखवाली कष्ट से होती है और मिले हुए धन का नाश मृत्यु के समान होती है इसलिए इस धनलाभ की चिंता न करनी चाहिए।

First of all, it is difficult to get money and if it is found then it is guarded by pain and the wealth received is destroyed like death, so do not worry about this benefit.

18. यं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् |
      उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ||

अनुवाद:- यह मेरा है ,यह उसका है ; ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है;इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है |

This is mine, this is his; Such thinking is of narrow minded people; on the contrary, for liberated people, this entire earth is like a family.

19. विद्या मित्रं प्रवासेषु ,भार्या मित्रं गृहेषु च |
      व्याधितस्यौषधं मित्रं , धर्मो मित्रं मृतस्य च ||

अनुवाद:- ज्ञान यात्रा में ,पत्नी घर में, औषध रोगी का तथा धर्म मृतक का ( सबसे बड़ा ) मित्र होता है |

In the knowledge Yatra, the wife is at home, the patient of medicine and religion is the (greatest) friend of the deceased.

20. पुस्तकस्था तु या विद्या ,परहस्तगतं च धनम् |
      कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ||

अनुवाद:- पुस्तक में रखी विद्या तथा दूसरे के हाथ में गया धन—ये दोनों ही ज़रूरत के समय हमारे किसी भी काम नहीं आया करते |

The knowledge kept in the book and the money in the other's hands - both of these do not help us in any time.

21. श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन दानेन पाणिर्न तु कंकणेन,
      विभाति कायः करुणापराणां  परोपकारैर्न तु चन्दनेन ||

अनुवाद:- कानों की शोभा कुण्डलों से नहीं अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है | हाथ दान करने से सुशोभित होते हैं न कि कंकणों से | दयालु / सज्जन व्यक्तियों का शरीर चन्दन से नहीं बल्कि दूसरों का हित करने से शोभा पाता है |

Ears are not glorified by listening to the horoscopes, but by listening to the words of knowledge. Donating hands makes you beautiful, not with kankan. The body of kind / gentle persons does not suit sandalwood but it is done by doing good to others.

22. पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि, जलमन्नं सुभाषितम् ॥
      पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा प्रदीयते ||

अनुवाद:- पृथ्वी पर जल, अन्न, और सुभाषित - ये तीन रत्न है । (किंतु) मूढ लोग पत्थर के टुकडे को "रत्न" संज्ञा से पहचानते हैं ! 

There are three jewels on earth: water, food, and adages. Fools, however, regard pieces of rocks as jewels.

23. किमप्यस्ति स्वभावेन सुन्दरं वाप्यसुन्दरम् ।
      यदेव रोचते यस्मै भवेत्तत्तस्य सुन्दरम् ॥   सुभाषितरत्नभाण्डागारम् ॥

अनुवाद:- किसी की भी सुन्दरता और कुरूपता का कारण उसके स्वभावगुण कहाँ होते हैं ? जो प्रिय (अथवा अप्रिय) हैं , वही सुन्दर (अथवा कुरुप) लगता हैं।

Is whatever that exists in this world beautiful or ugly by its very nature ? Of course not! Something only becomes beautiful because someone fancies it.

24. दूरे चित्सन् तडिदिवाति रोचसे । (ऋग्वेद १/९४/७)

अनुवाद:- परमात्मा दूर होकर भी बिजली की तरह समीप ही चमकता है ।

God shines near lightning, even when he is away.

25. आपत्सु मित्रं जानीयाद् युद्धे शूरमृणे शुचिम् ।
      भार्यां क्षीणेषु वित्तेषु व्यसनेषु च बान्धवान् ॥  ( हितोपदेश )

अनुवाद:- आपत्ति में मित्र की, युद्ध में शूरवीर की, ऋण में पवित्रता की, धनहीन होजाने पर पत्नि की और संकटों में संबंधियो की सच्ची पहचान होती है ।

26. न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा ,वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम् । 
       धर्म: स नो यत्र न सत्यमस्ति, सत्यं न तद् यच्छलमभ्युपैति ॥ (महाभारत उ. ३५.५८)

अनुवाद:- वह सभा सभा नहीं है जहां वृद्ध न हों, वे वृद्ध वृद्ध नहीं हैं जो धर्म की बात नहीं कहते, वह धर्म धर्म नही है जिसमें सत्य न हो और वह सत्य सत्य नहीं है जो छल का सहारा लेता हो ।

27. अन्नपते अन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः | 
प्र प्र दातारं तारिष ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे ||

अनुवाद:-  हे {अन्नपते } अन्न के पति भगवन् ! {नः} हमे {अनमीवस्य }कीट आदि रहित{शुष्मिणः} बलकारक {अन्नस्य } अन्न के भण्डार{ देहि } दीजिये {प्रदातारं }अन्न का खूब दान देने वाले को {प्रतारिष } दु:खो से पार लगाईये { नः} हमारे {द्विपदे चतुष्पदे} दोपायो और चौपायो को { ऊर्जं } बल {धेहि } दीजिये |

Oh Mighty provider of our food- our Chef provide us with food that is free from any harmful organisms and that provides great strength. Oh provider of food, I and my cattle both should be satiated with your food and good measure of energy.

28. सं ग॑च्छध्वं॒ सं व॑दध्वं॒ सं वो॒ मनां॑सि जानताम् । 
      दे॒वा भा॒गं यथा॒ पूर्वे॑ संजाना॒ना उ॒पास॑ते ॥

अनुवाद:- मनुष्यों में अलग-अलग दल न होने चाहिए, किन्तु सब मिलकर एक सूत्र में बँधें, मिलकर रहें, इसलिए मिलें कि परस्पर संवाद कर सकें, एक-दूसरे के सुख-दुःख और अभिप्राय को सुन सकें और इसलिए संवाद करें कि मन सब का एक बने-एक ही लक्ष्य बने और एक लक्ष्य इसलिये बनना चाहिये कि जैसे श्रेष्ठ विद्वान् एक मन बनाकर मानव का सच्चा सुख प्राप्त करते रहे, ऐसे तुम भी करते रहो ।

स॒मा॒नो मन्त्र॒: समि॑तिः समा॒नी स॑मा॒नं मन॑: स॒ह चि॒त्तमे॑षाम् । स॒मा॒नं मन्त्र॑म॒भि म॑न्त्रये वः समा॒नेन॑ वो ह॒विषा॑ जुहोमि॥ स॒मा॒नी व॒ आकू॑तिः समा॒ना हृद॑यानि वः । स॒मा॒नम॑स्तु वो॒ मनो॒ यथा॑ व॒: सुस॒हास॑ति ॥

Humans should not have separate groups, but all be united in one sutra, live together, so that we can communicate together, listen to each other's joys and sorrows and therefore communicate that the mind is one of all There should be only one goal and one goal should be made so that as the best scholars continue to achieve true happiness of human beings by creating a mind, so too you keep doing.

29. मूर्खस्य पञ्च चिन्हानि गर्वो दुर्वचनं तथा।
      क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः॥

अनुवाद:- मूर्खों के पाँच लक्षण हैं - गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ और दूसरों की बातों का अनादर॥

There are five characteristics of fools - pride, profanity, anger, persistence and disrespect of others.

30. सुजीर्णमन्नं सुविचक्षणः सुतः, सुशासिता स्री नृपति: सुसेवितः।
      सुचिन्त्य चोक्तं सुविचार्य यत्कृतं,सुदीर्घकालेsपि न याति विक्रियाम्।।

अनुवाद:- अच्छी रीति से पका हुआ भोजन, विद्यावान पुत्र, सुशिक्षित अर्थात आज्ञाकारिणी स्री, अच्छे प्रकार से सेवा किया हुआ राजा, सोच कर कहा हुआ वचन, और विचार कर किया हुआ काम ये बहुत काल तक भी नहीं बिछड़ते हैं।

Well-cooked food, well-educated son, well-educated, obedient woman, well-served king, thoughtfully spoken word, and thought-provoking work do not last long.

31. सुभाषितेन गीतेन युवतीनां च लीलया । मनो न भिद्यते यस्य स वै योगीह्यथवा पशुः।।
      शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च। दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम।।

अनुवाद:- सहस्रों शोक की और सैकड़ों भय की बातें मूर्ख पुरुष को दिन पर दिन दुख देती है, और पण्डित को नहीं।

Thousands of mourning and hundreds of fears make the foolish man suffer day by day, and not the wise man.

32. लोभात्क्रोधः प्रभवति लोभात्कामः प्रजायते। 
      लोभान्मोहश्च नाशश्च लोभः पापस्य कारणम।।

अनुवाद:- लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है, लोभ से विषय भोग की इच्छा होती है और लोभ से मोह और नाश होता है, इसलिए लोभ ही पाप की जड़ है।

Greed creates anger, greed leads to desire for enjoyment and greed leads to attachment and destruction, so greed is the root of sin.

33. विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः।
      यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ, प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम।

अनुवाद:- आपदा में धीरज, बढ़ती में क्षमा, सभा में वाणी की चतुरता, युद्ध में पराक्रम, यश में रुचि और शास्र में अनुराग ये बातें महात्माओं में स्वाभाव से ही होती है।

Endurance in disaster, forgiveness in growing, cleverness of speech in the assembly, might in war, interest in fame and affection in scripture are these things in the spirit of the Mahatmas.

34. सुजीर्णमन्नं सुविचक्षणः सुतः, सुशासिता स्री नृपति: सुसेवितः।
      सुचिन्त्य चोक्तं सुविचार्य यत्कृतं,सुदीर्घकालेsपि न याति विक्रियाम्।।

अनुवाद:- अच्छी रीति से पका हुआ भोजन, विद्यावान पुत्र, सुशिक्षित अर्थात आज्ञाकारिणी स्री, अच्छे प्रकार से सेवा किया हुआ राजा, सोच कर कहा हुआ वचन, और विचार कर किया हुआ काम ये बहुत काल तक भी नहीं बिछड़ते हैं।

Well-cooked food, well-educated son, well-educated, obedient woman, well-served king, thoughtfully spoken word, and thought-provoking work do not last long.

35. दुर्जनम् प्रथमं वन्दे, सज्जनं तदनन्तरम्। 
      मुख प्रक्षालनत् पूर्वे गुदा प्रक्षालनम् यथा ॥

अनुवाद:- पहले कुटिल व्यक्तियों को प्रणाम करना चाहिये, सज्जनों को उसके बाद; जैसे मुँह धोने से पहले, गुदा धोयी जाती है ।

First attend the people who are not so good, the the better ones. Like in the morning we wash our face after washing our rear ends :)

36. अयं निजः परोवेति, गणना लघुचेतसाम । 
      उदारचरितानामतु वसुधैवकुटुम्बकम् ॥

अनुवाद:- यह मेरा है, यह दूसरे का है, ऐसा छोटी बुद्धि वाले सोचते हैं; उदार चरित्र वालों के लिये तो धरती ही परिवार है ।

It's mine and that is other's, this is a thought of a narrow-hearted (selfish) person, For generous people this whole world is their family.

37. विद्या विवादाय धनं मदाय, शक्तिः परेशाम् परपीड़नाय । 
      खलस्य साधोर्विपरीतमेतद ज्ञानाय, दानायचरक्षणाय॥

अनुवाद:- विद्या विवाद के लिये, धन मद के लिये, शक्ति दूसरों को सताने के लिये, ये चीजें सज्जन लोगों में दुष्टों से उल्टी होती हैं, क्रमशः ज्ञान, दान और रक्षा के लिये ।

Knowledge for altercations, Wealth for arrogance, power to harass others. But in gentlemen these traits are opposite then the miscreants, It is for wisdom, charity and to protect respectively.

38. न चौरहार्यम् न न राजहार्यम् न भ्रातृभाज्यम् न च भारकारि । 
व्यये कृते वर्धत एव नित्यम् विद्या धनं सर्व धनम् प्रधानम् ॥

अनुवाद:- न चोर चुरा सकता है, न राजा छीन सकता है, न भाई बांट सकते हैं और न यह भारी है। खर्च करने पर रोज बढती है, विद्या धन सभी धनों में प्रधान है ।

Neither thieves can snatch it away nor the king, Neither brothers can divide it nor it is heavy. It keeps on increasing as you spend it (with others), So the wealth of knowledge is superior to all.

39. ताराणां भूषणम् चन्द्र, नारीणां भूषणम् पतिः । 
पृथिव्यां भूषणम् राज्ञः विद्या सर्वस्य भूषणम् ॥

अनुवाद:- चन्द्रमा तारों का आभूषण है, नारी का भूषण पति है । पृथ्वी का अभूषण राजा है और विद्या सभी का आभूषण है ।

Star's grace is the moon, Husband is the ornament for a woman. Land's grace is a king and knowledge is ornament for all (everyone).

40. उत्साहसम्पन्नमदीर्घसूत्रं क्रिया विधिज्ञं व्यसनेष्वसक्तम् । 
      शूरं कृतज्ञं दृढ सौहृतम् च लक्ष्मीः स्वयं याति निवास हेतो ॥

अनुवाद:- जो उत्साह से भरा है, आलसी नहीं है, क्रिया कुशल है और अच्छे कामों में रत है, वीर, कृतज्ञ और अच्छी मित्रता रखने वाला है, लक्ष्मी उस के साथ रहने अपने आप आती है ।

Lakshmi (Goddess of Wealth) comes to live with him, who is full of excitement, active, posses skills and indulged in good work. Who is courageous, grateful, has solid friendship.

42. आचारः परमो धर्म आचारः परमं तपः। 
      आचारः परमं ज्ञानम् आचरात् किं न साध्यते॥

अनुवाद:- व्यवहार परम धर्म है, व्यवहार ही परम तप है, व्यवहार ही परम ज्ञान है, व्यवहार से क्या नहीं मिल सकता ।

Good conduct is the highest dharma, it is the greatest penance. It is also the greatest knowledge. What can't be achieved through good conduct?

43. शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे। 
      साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने॥

अनुवाद:- हर पत्थर मणि नहीं होता, हर हाथी पर मुक्ता नहीं होता । सज्जन सभी जगह नहीं होते और चंदन हर वन में नहीं होता ।

Every stone is not a jewel, Every elephant doesn't has gem. Gentlemen are not available everywhere Sandal doesn't exist in every forest.

44. पुस्तकस्था तु या विद्या परहस्तगतं धनम्। 
      कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद् धनम्॥

अनुवाद:- किताब में रखा ज्ञान और दूसरे को दिया धन, काम पडने पर न वह विद्या काम आती है और न वह धन ।

Knowledge which is in book and money which is given to another one, Then when required at that time neither that knowledge nor that money can be used.

45. वरमेको गुणी पुत्रः न च मूर्खशतान्यपि। 
      एकश्चंद्रस्तमो हन्तिः न तारागणाऽपि च॥

अनुवाद:- मुझे एक गुणी पुत्र मिले न कि सौ मूर्ख पुत्र, एक ही चन्द्रमा अन्धेरे को खत्म करता है, सभी तारे मिल कर भी नहीं कर पाते ।

(O God!) Give me a virtuous son, instead of hundreds of wicked. Only one moon can lighten in the dark but not all stars can do it.

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-अतुल कृष्ण

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-Atul Krishan

Saturday, March 2, 2019

महाशिवरात्रि पर विशेष

महाशिवरात्रि

महाशिवरात्र‍ि हिंदुओं का एक धार्मिक त्योहार है, जिसे हिंदू धर्म के प्रमुख देवता महादेव अर्थात भगवान शिवजी के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। कई स्थानों पर यह भी माना जाता है कि इसी दिन भगवान शिव का विवाह हुआ था। महाशिवरात्र‍ि का पर्व फाल्गुन मास में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाता है। इस दिन शिवभक्त एवं शिव में श्रद्धा रखने वाले लोग व्रत-उपवास रखते हैं और विशेष रूप से भगवान शिव की आराधना करते हैं। 

महाशिवरात्रि कथा 

शिव महापुराण के अनुसार- प्राचीन काल में एक जंगल में एक गुरुद्रुह नाम का एक शिकारी रहता था जो जंगली जानवरों का शिकार करता और अपने परिवार का भरण-पोषण किया करता था। एक बार शिव-रात्रि के दिन जब वह शिकार के लिए निकला, पर संयोगवश पूरे दिन खोजने के बाद भी उसे कोई शिकार नहीं मिला, उसके बच्चों, पत्नी एवं माता-पिता को भूखा रहना पड़ेगा इस बात से वह चिंतित हो गया, सूर्यास्त होने पर वह एक जलाशय के समीप गया और वहां एक घाट के किनारे एक पेड़ पर थोड़ा सा जल पीने के लिए लेकर, चढ़ गया क्योंकि उसे पूरी उम्मीद थी कि कोई-न-कोई जानवर अपनी प्यास बुझाने के लिए इस जलाशय के निकट ज़रूर आयेगा। यह सोचकर वह एक ‘बेल-पत्र’ के पेड़ पर चढ़ गया। उसी पेड़ के नीचे शिवलिंग भी था जो सूखे बेलपत्रों से ढके होने के कारण दिखाई नहीं दे रहा था।

रात का पहला प्रहर बीतने से पहले एक हिरणी वहां पर पानी पीने के लिए आई। उसे देखते ही शिकारी ने अपने धनुष पर बाण साधा। ऐसा करने में, उसके हाथ के धक्के से कुछ पत्ते एवं जल की कुछ बूंदे नीचे बने शिवलिंग पर गिरीं और अनजाने में ही शिकारी की पहले प्रहर की पूजा हो गयी। हिरणी ने जब पत्तों की खड़खड़ाहट सुनी, तो घबरा कर ऊपर की ओर देखा और भयभीत हो कर, शिकारी से कांपते हुए स्वर में बोली- ‘मुझे मत मारो |’ शिकारी ने कहा कि वह और उसका परिवार भूखा है इसलिए वह उसे नहीं छोड़ सकता। हिरणी ने वादा किया कि वह अपने बच्चों को अपने स्वामी को सौंप कर लौट आयेगी। तब वह उसका शिकार कर ले। शिकारी को उसकी बात का विश्वास नहीं हो रहा था। उसने फिर से शिकारी को यह कहते हुए अपनी बात का भरोसा करवाया कि जैसे सत्य पर ही धरती टिकी है, समुद्र मर्यादा में रहता है और झरनों से जल-धाराएँ गिरा करती हैं वैसे ही वह भी सत्य बोल रही है। क्रूर होने के बावजूद भी, शिकारी को उस पर दया आ गयी और उसने ‘जल्दी लौटना’ कहकर उस हिरनी को जाने दिया। 

थोड़ी ही देर बाद एक और हिरनी वहां पानी पीने आई, शिकारी सावधान हो गया, तीर सांधने लगा और ऐसा करते हुए, उसके हाथ के धक्के से फिर पहले की ही तरह थोडा जल और कुछ बेलपत्र नीचे शिवलिंग पर जा गिरे और अनायास ही शिकारी की दूसरे प्रहर की पूजा भी हो गयी। इस हिरनी ने भी भयभीत हो कर, शिकारी से जीवनदान की याचना की लेकिन उसके अस्वीकार कर देने पर, हिरनी ने उसे लौट आने का वचन, यह कहते हुए दिया कि उसे ज्ञात है कि जो वचन दे कर पलट जाता है, उसका अपने जीवन में संचित पुण्य नष्ट हो जाया करता है। उस शिकारी ने पहले की तरह, इस हिरनी के वचन का भी भरोसा कर उसे जाने दिया।

अब तो वह इसी चिंता से व्याकुल हो रहा था कि उन में से शायद ही कोई हिरनी लौट के आये और अब उसके परिवार का क्या होगा। इतने में ही उसने जल की ओर आते हुए एक हिरण को देखा, उसे देखकर शिकारी बड़ा प्रसन्न हुआ ,अब फिर धनुष पर बाण चढाने से उसकी तीसरे प्रहर की पूजा भी स्वतः ही संपन्न हो गयी लेकिन पत्तों के गिरने की आवाज़ से वह हिरन सावधान हो गया। उसने शिकारी को देखा और पूछा –“ तुम क्या करना चाहते हो ?” वह बोला-“अपने कुटुंब को भोजन देने के लिए तुम्हारा वध करूंगा।” वह मृग प्रसन्न हो कर कहने लगा – “मैं धन्य हूँ कि मेरा यह शरीर किसी के काम आएगा, परोपकार से मेरा जीवन सफल हो जायेगा पर कृपया कर अभी मुझे जाने दो ताकि मैं अपने बच्चों को उनकी माता के हाथ में सौंप कर और उन सबको धीरज बंधा कर यहाँ लौट आऊं।” शिकारी का ह्रदय, उसके पापपुंज नष्ट हो जाने से अब तक शुद्ध हो गया था इसलिए वह विनयपूर्वक बोला –‘ जो-जो यहाँ आये, सभी बातें बनाकर चले गये और अभी तक नहीं लौटे, यदि तुम भी झूठ बोलकर चले जाओगे, तो मेरे परिजनों का क्या होगा ?” अब हिरन ने यह कहते हुए उसे अपने सत्य बोलने का भरोसा दिलवाया कि यदि वह लौटकर न आये, तो उसे वह पाप लगे जो उसे लगा करता है जो सामर्थ्य रहते हुए भी दूसरे का उपकार नहीं करता। शिकारी ने उसे भी यह कहकर जाने दिया कि शीघ्र लौट आना।

रात्रि का अंतिम प्रहर शुरू होते ही उस शिकारी के हर्ष की सीमा न थी क्योंकि उसने उन सब हिरन-हिरनियों को अपने बच्चों सहित एक साथ आते देख लिया था। उन्हें देखते ही उसने अपने धनुष पर बाण रखा और पहले की ही तरह उसकी चौथे प्रहर की भी शिव-पूजा संपन्न हो गयी। अब उस शिकारी के शिव कृपा से सभी पाप भस्म हो गये इसलिए वह सोचने लगा-‘ओह, ये पशु धन्य हैं जो ज्ञानहीन हो कर भी अपने शरीर से परोपकार करना चाहते हैं लेकिन धिक्कार है मेरे जीवन को कि मैं अनेक प्रकार के कुकृत्यों से अपने परिवार का पालन करता रहा।’ अब उसने अपना बाण रोक लिया तथा मृगों से कहा की वे सब धन्य है तथा उन्हें वापिस जाने दिया। उसके ऐसा करने पर भगवान् शंकर ने प्रसन्न हो कर तत्काल उसे अपने दिव्य स्वरूप का दर्शन करवाया तथा उसे सुख-समृद्धि का वरदान देकर “गुह’’ नाम प्रदान किया। मित्रों, यही वह गुह था जिसके साथ भगवान् श्री राम ने मित्रता की थी।

महाशिवरात्रि व्रत का महत्व 

' फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि ।
शिवलिङ्गतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभ।।

अर्थात:- फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में आदिदेव भगवान शिव करोडों सूर्यों के समान प्रभाव वाले लिंग रूप में प्रकट हुए।

महाशिवरात्रि व्रत के नियम

महाशिवरात्रि का व्रत मनवांछित फल की प्राप्ति हेतु किया जाता है। व्रतधारी को ब्रह्म मुर्हत में उठना चाहिए साथ ही इस दिन ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। सुबह उठकर पानी में कुछ बूंद गंगा जल डालकर नहाना चाहिए। इस व्रत मे शिवजी पार्वती का पूजन करना चाहिए। 

१. सर्वप्रथम भगवान शिवजी और माता पार्वतीजी का अभिषेक जल या गंगाजल करें उसके उपरांत पंचामृत स्नान गाय का कच्चा दूध, दही, घी, शहद, चने की दाल, गुड़, काले तिल, आदि कई सामग्रियों से अभिषेक करना चाहिए और फिर पुनः जल या गंगाजल से शुद्धोदक स्नान करना चाहिए।

२. तत्पश्चात भगवान को सिंदूर एवं चावल से तिलक करना चाहिए।

३. तत्पश्चात श्वेत पुष्प, बिल्वपत्र, धतूरा, भाँग एवं बेर आदि अर्पण कर पूजन करना चाहिए।

४. तदुपरांत भगवान शिव का पंचाक्षरी मंत्र "ऊँ नमः शिवाय" अथवा महामृत्युंजय मंत्र का जाप करना चाहिए।

५. शिव-पार्वती की पूजा के बाद सावन के सोमवार की व्रत कथा सुननी चाहिए।

६. भगवान शिवजी आरती करने के बाद भोग लगाएं और घर परिवार में बांटने के पश्चात स्वयं ग्रहण करें।

७. पूजन के उपरांत ब्राह्मण (आचार्य, विप्र, द्विज, द्विजोत्तम) एवं निर्धन व्यक्ति को भोजन एवं दान-दक्षिणा देकर विदा करना चाहिए।

८. आप इस व्रत मे फलाहार नियम रख सकते हैं। परन्तु याद रखें केवल एक समय ही भोजन करना हैं।

इस प्रकार श्रद्धापूर्वक व्रत करने से भगवान भोलेनाथ एवं माता पार्वती प्रसन्न होकर मनवांछित फल देते हैं।

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-अतुल कृष्ण

कुंभ पर विशेष (आस्था, विश्वास एवं संस्कृतियों का संगम)

कुंभ

आस्था, विश्वास एवं संस्कृतियों के मिलन का पर्व है “कुंभ”। कुंभ का शाब्दिक अर्थ कलश से है, अर्थात् पवित्र कलश या अमृत कलश। कलश के मुख को भगवान विष्णु, गर्दन को रूद्र, आधार को ब्रम्हा, बीच के भाग को समस्त देवियों और अंदर के जल को संपूर्ण सागर का प्रतीक माना जाता है। यह चारों वेदों का संगम है।

इस प्रकार इसे सभ्यता का संगम भी कहा जाता है। कुम्भ ऊर्जा का स्त्रोत है। यह मनुष्य को पाप, पुण्य और प्रकाश, अंधकार से अवगत कराता है।

कुम्भ मेला भारत एवं विश्व के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक धरोहर का एक केन्द्र माना जाता है और करोड़ों तीर्थयात्री इसी आस्था से यहाँ इस पावन पर्व के दौरान पधारते हैं। कुम्भ वैश्विक पटल पर शांति और सामंजस्य का एक प्रतीक है। वर्ष 2017 में यूनेस्को द्वारा कुम्भ को ‘‘मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत’’ की प्रतिनिधि सूची पर मान्यता प्रदान की गयी है। अध्यात्मिकता का ज्ञान समृद्ध करते हुए, ज्योतिष, खगोल विज्ञान, कर्मकाण्ड, परंपरा और सामाजिक एवं सांस्कृतिक पद्धतियों एवं व्यवहार को प्रयागराज का कुम्भ प्रदर्शित करता है।

पौराणिक मान्यता

श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार देवासुर संग्राम के उपरांत दोनों पक्ष (देव एवं दानव) समुद्र मंथन के लिए राजी हुए हो गए। इस प्रकार समुद्र मंथन के लिए समुद्र में मंदराचल को स्थापित कर वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया एवं स्वयं भगवान श्रीविष्णु कच्छप अवतार लेकर मन्दराचल पर्वत को अपने पीठ पर रखकर उसका आधार बन गये। तत्पश्चात दोनों पक्ष अमृत-प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन करने लगे।
अमृत पाने की इच्छा से सभी बड़े जोश और वेग से मंथन कर रहे थे। सहसा तभी समुद्र में से कालकूट नामक भयंकर विष निकला। उस विष की अग्नि से दसों दिशाएँ जलने लगीं। समस्त प्राणियों में हाहाकार मच गया। तब देवताओं ने भगवान शिवजी की स्तुति की। जिसके फलस्वरूप भगवान शिवजी ने विष को ग्रहण किया और नीलकंठ कहलाये। समुद्र मंथन से क्रमशः चौदह: रत्न निकलें:-

1. कालकूट (हलाहल) 2. ऐरावत 3. कामधेनु 4. उच्चैःश्रवा 5. कौस्तुभमणि 6. कल्पवृक्ष 7. रम्भा नामक अप्सरा 8. लक्ष्मी 9. वारुणी मदिरा 10. चन्द्रमा 11. शारंग धनुष 12. शंख 13. गंधर्व 14. अमृत

एक सन्दर्भ में एक श्लोक प्रचलित हैं:-

लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुराधन्वन्तरिश्चन्द्रमाः। 
गावः कामदुहा सुरेश्वरगजो रम्भादिदेवांगनाः। 
अश्वः सप्तमुखो विषं हरिधनुः शंखोमृतं चाम्बुधेः।
रत्नानीह चतुर्दश प्रतिदिनं कुर्यात्सदा मंगलम्।

इस प्रकार मंथन से प्राप्त रत्नों को दोनों पक्षों में परस्पर बाँट लिया गया परन्तु जब धन्वन्तरि ने अमृत कलश देवताओं को दे दिया तो तदोउपरांत पुनः युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई। तब भगवान् विष्णु जी ने स्वयं मोहिनी रूप धारकर सबको अमृत-पान कराने की बात कही एवं अमृत कलश का दायित्व इंद्र-पुत्र जयंत को सौप दिया।

अमृत-कलश को प्राप्त कर जब जयंत दानवों से अमृत की रक्षा करने हेतु भागे तभी इसी क्रम में अमृत की बूंदे पृथ्वी पर चार स्थानों पर गिरी- हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन। क्योंकि भगवान विष्णु की आज्ञा से सूर्य, चन्द्र, शनि एवं बृहस्पति भी अमृत कलश की रक्षा कर रहे थे और विभिन्न राशियों (सिंह, कुम्भ एवं मेष) में विचरण के कारण वे सभी भी कुम्भ पर्व के द्योतक बने।

धार्मिक मान्यताएँ

सांदीपनि मुनि चरित्र स्तोत्र के अनुसार, महर्षि सांदीपनि काशी में रहते थे। एक बार प्रभास क्षेत्र से लौटते हुए वे उज्जैन आए। उस समय यहां कुंभ मेले का समय था। लेकिन उज्जैन में भयंकर अकाल के कारण साधु-संत बहुत परेशान हो गये । अतः महर्षि सांदीपनि ने तपस्या कर भगवान शिव जी को प्रसन्न किया, जिससे प्रभाव से अकाल समाप्त हो गया। साथ ही भगवान शिव जी ने महर्षि सांदीपनि से इसी स्थान पर रहकर विद्यार्थियों को शिक्षा देने के लिए कहा। आज भी उज्जैन में महर्षि सांदीपनि का आश्रम स्थित है।

अर्धकुंभ

अर्ध का अर्थ है आधा। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ का आयोजन होता है। 

सिंहस्थ कुंभ 

सिंहस्थ का संबंध सिंह राशि से है। सिंह राशि में बृहस्पति एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर उज्जैन में कुंभ का आयोजन होता है। इसके अलावा सिंह राशि में बृहस्पति के प्रवेश होने पर कुंभ पर्व का आयोजन गोदावरी के तट पर नासिक में होता है।

कुंभ में स्नान का महत्व

सहस्त्र कार्तिके स्नानं माघे स्नान शतानि च।
वैशाखे नर्मदाकोटिः कुंभस्नानेन तत्फलम्।।
अश्वमेघ सहस्त्राणि वाजवेयशतानि च।
लक्षं प्रदक्षिणा भूम्याः कुंभस्नानेन तत्फलम्।

अर्थ- कुंभ में किए गए एक स्नान का फल कार्तिक मास में किए गए हजार स्नान, माघ मास में किए गए सौ स्नान व वैशाख मास में नर्मदा में किए गए करोड़ों स्नानों के बराबर होता है। हजारों अश्वमेघ, सौ वाजपेय यज्ञों तथा एक लाख बार पृथ्वी की परिक्रमा करने से जो पुण्य मिलता है, वह कुंभ में एक स्नान करने से प्राप्त हो जाता है।

ज्योतिषीय महत्व

कुम्भपर्व पौराणिक आख्यानों से साथ-साथ खगोलीय विज्ञान ही है क्योंकि ग्रहों की विशेष स्थितियाँ के आधार पर ही कुम्भपर्व के काल का निर्धारण होता है।  कुम्भपर्व का योग सूर्य, चंद्रमा, गुरू और शनि के सम्बध में सुनिश्चित होता है।

स्कन्द पुराण अनुसार-

चन्द्रः प्रश्रवणाद्रक्षां सूर्यो विस्फोटनाद्दधौ।
दैत्येभ्यश्र गुरू रक्षां सौरिर्देवेन्द्रजाद् भयात्।।
सूर्येन्दुगुरूसंयोगस्य यद्राशौ यत्र वत्सरे।
सुधाकुम्भप्लवे भूमे कुम्भो भवति नान्यथा।।

अर्थात्:- जिस समय अमृतपूर्ण कुम्भ को लेकर देवताओं एवं दैत्यों में संघर्ष हुआ उस समय चंद्रमा ने उस अमृतकुम्भ से अमृत के छलकने से रक्षा की और सूर्य ने उस अमृत कुम्भ के टूटने से रक्षा की। देवगुरू बृहस्पति ने दैत्यों से तथा शनि ने इंद्रपुत्र जयन्त की रक्षा की। इसी लिए उस देव दैत्य कलह में जिन-जिन स्थानों में (हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन) जिस-जिस दिन सुधा कुम्भ छलका है उन्हीं-उन्हीं स्थलों में उन्हीं तिथियों में कुम्भपर्व होता है। देव-दैत्यों का युद्ध इस अमृत कुम्भ को लेकर 12 दिन तक 12 स्थानों में चला और उन 12 स्थलों में सुधा कुम्भ से अमृत छलका जिनमें पूर्वोक्त चार स्थल मृत्युलोक में है शेष आठ इस मृत्युलोक में न होकर अन्य लोकों में (स्वर्ग आदि लोकों में) माने जाते हैं। 12 वर्ष के मान का देवताओं का बारह दिन होता है। इसीलिए 12वें वर्ष ही सामान्यतया प्रत्येक स्थान में कुम्भपर्व की स्थिति बनती है।

वृष राशि में गुरू मकर राशि में सूर्य तथा चंद्रमा माघ मास में अमावस्या के दिन कुम्भपर्व की स्थिति देखी गयी है। इसलिए प्रयाग के कुम्भपर्व के विषय में- "वृषराषिगतेजीवे" के समान ही "मेषराशिगतेजीवे" ऐसा उल्लेख मिलता है।
कुम्भपर्वों का जो ग्रह योग प्राप्त होता है वह लगभग सभी जगह सामान्य रूप से बारहवे वर्ष प्राप्त होता है। परन्तु कभी-कभी ग्यारहवें वर्ष भी कुम्भपर्व की स्थिति देखी जाती है। यह विषय अत्यन्त विचारणीय हैं, सामान्यतया सूर्य चंद्र की स्थिति को प्रतिवर्ष चारों स्थलों में स्वतः बनती है। उसके लिए प्रयाग में कुम्भपर्व के समय वृष के गुरू रहते हैं जिनका स्वामी शुक्र है। शुक्रग्रह ऐश्वर्य भोग एवं स्नेह का सम्वर्धक है। गुरू ग्रह के इस राशि में स्थित होने से मानव के वैचारिक भावों में परम सात्विकता का संचार होता है जिससे स्नेह, भोग एवं ऐश्वर्य की सम्प्राप्ति के विचार में जो सात्विकता प्रवाहित होती है उससे उनके रजोगुणी दोष स्वतः विलीन होते हैं। तथैव मकर राशिगत सूर्य समस्त क्रियाओं में पटुता एवमेव मकर राशिस्थ चंद्र परम ऐश्वर्य को प्राप्त कराता है। फलतः ज्ञान एवं भक्ति की धारा स्वरूप गंगा एवं यमुना के इस पवित्र संगम क्षेत्र में चारो पुरूषार्थों की सिद्धि अल्पप्रयास में ही श्रद्धालु मानव के समीपस्थ दिखाई देती है।

प्रत्येक ग्रह अपने-अपने राशि को एक सुनिश्चित समय में भोगता है जैसे सूर्य एक राशि को 30 दिन 26 घडी 17 पल 5 विपल का समय लेता है एवं चंद्रमा एक राशि का भाग लगभग 2.5 दिन में पूरा करता है तथैव बृहस्पति एक राशि का भोग 361 दिन 1 घडी 36 पल में करता है। स्थूल गणना के आधार पर वर्ष भर का काल बृहस्पति का मान लिया जाता है। किन्तु सौरवर्ष के अनुसार एक वर्ष में चार दिन 13 घडी एवं 55 पल का अन्तर बार्हस्पत्य वर्ष से होता है जो 12 वर्ष में 50 दिन 47 घडी का अन्तर पड़ता है और यही 84 वर्षों में 355 दिन 29 घडी का अन्तर बन जाता है। इसीलिए 50वें वर्ष जब कुम्भपर्व आता है तब वह 11वें वर्ष ही पड़ जाता है।

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-अतुल कृष्ण