अर्थात- सम्पूर्ण ऐश्वर्य,धर्म,यश,श्री,ज्ञान और वैराग्य--इन छह का नाम भग है। इन छह गुणों से युक्त महान को भगवान कहा जा सकता है।" श्रीराम व श्रीकृष्ण के पास ये सारे ही गुण थे (भग थे)। इसलिए उन्हें भगवान कहकर सम्बोधित किया जाता है। वे भगवान् थे, ईश्वर नहीं थे।
ईश्वर के गुणों को वेद के निम्न मंत्र में स्पस्ट किया गया है:-
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम् ।
अर्थात- वह ईश्वर सर्वशक्तिमान, शरीर-रहित, छिद्र-रहित, नस-नाड़ी के बन्धन से रहित, पवित्र, पुण्ययुक्त,अन्तर्यामी, दुष्टों का तिरस्कार करने वाला, स्वतःसिद्ध और सर्वव्यापक है। वही परमेश्वर ठीक-ठीक रीति से जीवों को कर्मफल प्रदान करता है।
"भगवान" शब्द की व्युत्पत्ति "भगः अस्य अस्ति इति भगवान्।"
"भगवान" गुण वाचक शब्द है। जिसका अर्थ गुणवान होता है। यह "भग" धातु से बना है, भग के 6 अर्थ है:-
जिसमें ये 6 गुण है वह भगवान है। कोई भी मनुष्य या देवता आदि भगवान नही कहे जा सकते है। यह शब्द केवल परमात्मा के लिए है। भगवान्- ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य- ये गुण अपनी समग्रता में जिस गण में हों उसे 'भग' कहते हैं। उसे अपने में धारण करने से वे भगवान् हैं। यह भी कि उत्पत्ति, प्रलय, प्राणियों के पूर्व व उत्तर जन्म, विद्या और अविद्या को एक साथ जानने वाले को भी भगवान कहते हैं।
दूसरे शब्दों में भगवान (संस्कृत : भगवत्) सन्धि विच्छेद: भ्+अ+ग्+अ+व्+आ+न्+अ
Meaning- Complete opulence, religion, fame, Shri, knowledge and disinterest -- these six are named Bhaga. One who is great with these six qualities can be called Bhagavan." Sri Rama and Sri Krishna had all these qualities (Bhaga). That's why they are addressed as Bhagavan. They were Bhagavan, not Ishvara.
The qualities of God are explained in the following mantra of Vedas:-
Meaning- That God is omnipotent, bodyless, holeless, free from the bondage of nerves and pulses, holy, virtuous, intercessor, despising the wicked, self-evident and all-pervading. The same Supreme Lord bestows the fruits of Karma on the living beings.
The etymology of the word "God" is "भगः अस्य अस्ति इति भगवान."
"Lord" is an attributive word. Which means virtuous. It is made of "Bhag" metal, Bhag has 6 meanings:-
The one who has these 6 qualities is God. No human being or deity etc. can be called God. This word is only for God. God - Aishwarya, Dharma, Fame, Lakshmi, Knowledge and Vairagya - the Gana in which these qualities are in their totality is called 'Bhag'. He is God by holding it in himself. Also, the one who knows the origin, annihilation, pre and post birth of beings, knowledge and ignorance together is also called God.
In other words God (Sanskrit: भागवत) सन्धि विच्छेद: भ्+अ+ग्+अ+व्+आ+न्+अ
सनातन धर्म में फाल्गुन पूर्णिमा का विशेष महत्व माना गया है। मान्यता है कि इस दिन माता लक्ष्मी का भी धरती पर अवतरण हुआ था। फाल्गुन मास रंगों और उमंगों का महीना होता है। फाल्गुन महीना हिंदू वर्ष का अंतिम महीना होता है। इस पूर्णिमा के बाद ही हिंदू नव वर्ष का आगाज होता है।
इस दिन मां लक्ष्मी की पूजा करने से आर्थिक स्थिति मजबूत होती है क्योंकि मां लक्ष्मी जी को सुख समृद्धि की देवी माना जाता है। इस दिन श्री सुक्तम का पाठ करना बहुत शुभ माना जाता है। माघ की पूर्णिमा पर होली का दंड रोप दिया जाता है। इसके लिए नगर से बाहर जंगल में शाखा सहित वृक्ष ला रहे हैं और उसे गन्धादि से पूज कर पश्चिम में दृष्टि दे रहे हैं। इसी को 'होली', 'होलीदंड', 'होली का डंडा', 'डंडा' या 'प्रहलाद' कहते हैं। इस अवसर पर लकड़ियां और कंडों आदि का ग्रहण होलिका पूजन किया जाता है।
-होली का यह त्योहार आपके और आपके परिवार के लिए है यह आपकी भलाई, स्थिरता, दीर्घायु, स्वास्थ्य और धन में वृद्धि करे। होली की हार्दिक शुभकामनाएं।
पूजन सामग्री
पूजन सामग्री के लिए एक थाल में गुलरी (बड़गुल्ले की मालाएं), चौमुखा दीपक, जल का लोटा, पिसी हल्दी या रोली, बताशे, नारियल, फूल, गुलाल, गुड़ की ढेली, शरद सूत की कुकड़ी, आठ पूरी, हलवा या आटा, दक्षिणा , गेहूं, जौ, चना की बालियां, एक कच्चा पापड़ रख लें।
फाल्गुन पूर्णिमा (होलिका दहन) व्रत एवं पूजन विधि
फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होलिका का पूजन मुख्य रूप से किया जाता है और भगवान नरसिंह की पूजा की जाती है।
नारद पुराण के अनुसार होलिका दहन के अगले दिन (रंग वाली होली के दिन) प्रात: काल उठकर आवश्यक नित्यक्रिया से निवृत्त होकर पितरों और देवताओं के लिए तर्पण-पूजन करना चाहिए। घर के आंगन को गोबर से लीपकर उसमें एक चौकोर मण्डल बनाना चाहिए।
ईंटें या मिट्टी से सूक्ष्म वेदीनुमा बना लें और समझौते का चौक पूर कर थोड़ा गुलाल छिड़क दें। इसमें शामिल हैं प्रह्लाद के प्रतीक के रूप में एक डण्डा गाढ़ देना और चारों ओर गूलरी की माला व उपले लगना । उसके उपरांत सूखी लकड़ी व गाय के गोबर के उपलो से होलीका सजाएं।
अब होलिका के पास पूर्व या उत्तर दिशा में मुख करके बैठें। यथाशक्ति संकल्प लेकर गोत्र-नामादि का उच्चारण कर पूजा करें।
सबसे पहले गणेश व गौरी इत्यादि का पूजन करें।
ॐ होलिकायै नम: से होली का पूजन करें।
ॐ प्रहलादाय नम: से प्रहलाद का पूजन करें।
ॐ नृसिंहाय नम: से भगवान नृसिंह का पूजन करें।
इसके उपरांत भगवान नरसिंह का ध्यान करने के बाद होलिका पर रोली, चावल, फूल, बताशे अर्पित किये जाते हैं और इसके बाद होलिका पर प्रहलाद का नाम लेकर पुष्प अर्पित किये जाते हैं। भगवान नरसिंह का नाम लेते हुए पांच अनाज चढ़ाये जाते हैं।
इसके बाद बड़गुल्ले की 4 मालाएं लें, एक पितरों के नाम, एक हनुमान जी के लिए, एक शीतला माता के लिए और एक अपने परिवार की होलिका को समर्पित करें।
अब होलिका की 3 या 7 बार परिक्रमा करते हुए कच्चा सूत या मौली को होलिका के चारों तरफ लपेट दिया जाता है।
अब होलिका पर गुलाल व रोली चढ़ाएं। इसके बाद समस्त पूजा सामग्री (फूल, साबुत हल्दी, साबुत मूंग, बताशे और 5 या फिर 7 प्रकार के अनाज, मिठाइयां और फल) होलिका को समर्पित कर दें।
लोटे का जल चढ़ाकर कहें- ॐ ब्रह्मार्पणमस्तु। फिर अपनी मनोकामनाएं कह दें और गलतियों की क्षमा मांग लें।
जब पूजन का समय हो मोहल्ले की होली में थोड़ी सी अग्नि लाकर घर की होली जलाएं। अग्नि सर्वेक्षण ही डण्डा को निकाल लेता है क्योंकि वह भक्त प्रह्लाद का रूप मानता है।
होलिका दहन होने के बाद होलिका में जिन वस्तुओं की आहुति दी जाती है, उनमें कच्चे आम, नारियल, भुट्टे या सप्तधान्य, चीनी के बने खिलौने, नई फसल का कुछ भाग प्रमुख है. होलिका के आग में गेंहू की बालियों को सेंक लें। बाद में उनको खा लें, इससे आप निरोग रहेंगे। साथ ही घर के बुजुर्गों के पैरों पर गुलाल लगाकर आशीर्वाद लिया जाता है।
दूसरे दिन होली की भस्म को अपने मस्तक पर स्थापना से सभी जाम की शान्ति होती है ।
होलिका दहन करने से सभी अनिष्ट दूर हो जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन जो मनुष्य मिश्रित मन से हिंडोले में झूते हुए बालकृष्ण के दर्शन करता है, वह दृढ़ संकल्प ही वैकुण्ठ में वास करता है ।
हिन्दु धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार, होलिका दहन, जिसे होलिका दीपक और छोटी होली के नाम से भी जाना जाता है, को सूर्यास्त के पश्चात प्रदोष के समय, जब पूर्णिमा तिथि व्याप्त हो, करना चाहिये। भद्रा, जो पूर्णिमा तिथि के पूर्वाद्ध में व्याप्त होती है, के समय होलिका पूजा और होलिका दहन नहीं करना चाहिये। सभी शुभ कार्य भद्रा में वर्जित हैं।
फाल्गुन पूर्णिमा व्रत की कथा
फाल्गुन पूर्णिमा व्रत की तो अनेक कथाएं है लेकिन नारद पुराण की कथा को सबसे अधिक महत्व का माना जाता है। नारद पुराण के अनुसार फाल्गुन पूर्णिमा की कथा राक्षस हिरण्यकश्यपु की बहन राक्षसी होलिका के दहन की कथा है। पौराणिक कथाओं के अनुसार जब राजा हिरण्यकश्यप ने यह देखा कि उसका पुत्र उसकी बात मानने की जगह भगवान विष्णु की पूजा करता है तो उसने गुस्से में अपनी बहन होलिका को प्रहलाद के साथ अग्नि में बैठने का हुक्म दिया ताकि प्रहलाद अग्नि में भस्म हो जाए।
हिरण्यकश्यपु के कहने पर होलिका प्रहलाद को आग में जलाने के लिए उसे अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठ जाती है। कहते हैं कि होलिका को यह वरदान मिला था कि अग्नि उसे जला नहीं सकती है। लेकिन भगवान विष्णु ने अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा की और उसे आग में जलने से बचा लिया। वही होलिका अग्नि में जलकर राख हो गई। मान्यता है की बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के तौर पर फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होलिका दहन किया जाता है।
फाल्गुन पूर्णिमा के अनुष्ठान:-
फाल्गुन पूर्णिमा पर भक्तों को सुबह जल्दी उठने और पवित्र नदियों में पवित्र स्नान करने की आवश्यकता होती है क्योंकि ऐसा करना बहुत शुभ और भाग्यशाली माना जाता है।
पवित्र स्नान करने के बाद, भक्तों को मंदिर में या कार्यशाला या घर में विष्णु भगवान की पूजा करनी चाहिए।
विष्णु पूजा का अनुष्ठान करने के बाद सत्यनारायण कथा का पाठ करना चाहिए।
भक्तों को भगवान विष्णु के मंदिर में जाना चाहिए, पूजा और प्रार्थना करनी चाहिए।
गायत्री मंत्र और ओम नमो नारायण मंत्र 1008 बार जाप करना बहुत शुभ माना जाता है।
लोगों को फाल्गुन पूर्णिमा पर अधिक से अधिक दान करना चाहिए। भोजन, कपड़े और पैसे जरूरतमंदों को दान करने चाहिए।
होलिका दहन के मुहूर्त के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिये –
भद्रा रहित, प्रदोष व्यापिनी पूर्णिमा तिथि, होलिका दहन के लिये उत्तम मानी जाती है। यदि भद्रा रहित, प्रदोष व्यापिनी पूर्णिमा का अभाव हो परन्तु भद्रा मध्य रात्रि से पहले ही समाप्त हो जाए तो प्रदोष के पश्चात जब भद्रा समाप्त हो तब होलिका दहन करना चाहिये। यदि भद्रा मध्य रात्रि तक व्याप्त हो तो ऐसी परिस्थिति में भद्रा पूँछ के दौरान होलिका दहन किया जा सकता है। परन्तु भद्रा मुख में होलिका दहन कदाचित नहीं करना चाहिये। धर्मसिन्धु में भी इस मान्यता का समर्थन किया गया है। धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार भद्रा मुख में किया होली दहन अनिष्ट का स्वागत करने के जैसा है जिसका परिणाम न केवल दहन करने वाले को बल्कि शहर और देशवासियों को भी भुगतना पड़ सकता है। किसी-किसी साल भद्रा पूँछ प्रदोष के बाद और मध्य रात्रि के बीच व्याप्त ही नहीं होती तो ऐसी स्थिति में प्रदोष के समय होलिका दहन किया जा सकता है। कभी दुर्लभ स्थिति में यदि प्रदोष और भद्रा पूँछ दोनों में ही होलिका दहन सम्भव न हो तो प्रदोष के पश्चात होलिका दहन करना चाहिये।
होलिका दहन का मुहूर्त किसी त्यौहार के मुहूर्त से ज्यादा महवपूर्ण और आवश्यक है। यदि किसी अन्य त्यौहार की पूजा उपयुक्त समय पर न की जाये तो मात्र पूजा के लाभ से वञ्चित होना पड़ेगा परन्तु होलिका दहन की पूजा अगर अनुपयुक्त समय पर हो जाये तो यह दुर्भाग्य और पीड़ा देती है।
होली की ज्वाला में व्हीट, जौ व चने की बालियां क्यों भूंते हैं?
फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा नव धान्य (जौ, गेहूं, चने) को यज्ञ रूपी भगवान को समर्पित करने का दिन है। इस पर्व को 'नवन्नेष्टि यज्ञ पर्व' भी कहा जाता है। होली के अवसर पर नए धान्य (जौ, गेहं, चने) की जमीनें पक कर तैयार हो जाती हैं। हिन्दू धर्म में खेत से आए नए अन्न को यज्ञ में हवन करके प्रसाद चयन की बैंकरीकरण है। उस अन्न को 'होला' कहते हैं।
अत: फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को उपले आदि समेकन कर में यज्ञ की तरह अग्नि स्थापित की जाती है जिसे 'होलिका जनाना' कहते हैं। फिर रोली, मिठाई से पूजन करके हवन के चरू के रूप में जौ, गेहूँ, चने की बालियों को आहुति के रूप में होली की ज्वाला में सेकते हैं। होली की तीन परिक्रमा करते हैं और सिकीं हुई बालियों को घर लाकर प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। इस तरह होली के रूप में 'नवन्नेष्टि यज्ञ' संपन्न होता है। इस तरह नया अन्न का यज्ञ करने से मनुष्य हृष्ट-पुष्ट व बलवान बनता है।
इस विधि से फाल्गुनोत्सव मनाने से लोगों की सभी आधि-व्याधि का नाश हो जाता है और वह पुत्र, पौत्र व धन-धान्य से संपन्न होता है।
होलाष्टक के शाब्दिक अर्थ पर जाएं तो होला + अष्टक अर्थात होली से पूर्व के आठ दिन, जो दिन होता है, वह होलाष्टक कहलाता है। सामान्य रुप से देखा जाये तो होली एक दिन का पर्व न होकर पूरे नौ दिनों का त्यौहार है।
होली के 8 दिन पूर्व फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी से होलाष्टक लग जाता है, जो पूर्णिमा तक जारी रहता है. होलाष्टक के इन 8 दिनों को वर्ष का सबसे अशुभ समय माना जाता है। इस दौरान सभी शुभ मांगलिक कार्य रोक दिए जाते है यह दुलहंडी पर रंग खेलकर खत्म होता है।
हे अग्नि, सभी प्रकार के ज्ञान को जानकर, हमें अच्छे मार्ग से धन की ओर ले चलो।
English Translation:
O Agni, knowing all kinds of knowledge, lead us to wealth in good ways.
होलाष्टक का महत्व
ज्योतिषी शास्त्री के अनुसार होली के पूर्व होलाष्टक का अपना अलग महत्व है।होलाष्टक की अवधि भक्ति की शक्ति का प्रभाव बताती है. इस अवधि में तप करना ही अच्छा रहता है। होलाष्टक को नवनेष्ट यज्ञ की शुरूआत का कारक भी माना जाता है। इस दिन से सभी प्रकार के नये फलों, अन्न, चना, गन्ना आदि का प्रयोग शुरू कर दिया जाता है। इस वर्ष जिन लड़कियों की शादी हुई हो, उन्हे भी अपने ससुराल में पहली होली नहीं देखनी चाहिये। होलाष्टक शुरू होने पर जमीन पर पेड़ की शाखाएं लगाई जाती हैं। इसमें रंग-बिरंगे कपड़ों के टुकड़े बांध देते हैं। इसे भक्त प्रहलाद का प्रतीक माना जाता है। मान्यताओं के अनुसार, जिस क्षेत्र में होलिका दहन के लिए पेड़ की शाखा को जमीन पर लगाते हैं, उस क्षेत्र में होलिका दहन तक कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है।
होलाष्टक कैसे मनाएं?
प्रचलित मान्यता के अनुसार होलाष्टक के शुरुआती दिन में ही होलिका दहन के लिए 2 डंडे स्थापित किये जाते हैं। जिसमें से एक को होलिका तथा दूसरे को प्रह्लाद माना जाता है।
पूजन करने के लिये होली से आठ दिन पहले होलिका दहन वाले स्थान को गंगाजल से शुद्ध कर उसमें सूखे उपले, सूखी लकडी, सूखी ख़ास व होली का डंडा स्थापित कर दिया जाता है. जिस दिन यह कार्य किया जाता है, उस दिन को होलाष्टक प्रारम्भ का दिन भी कहा जाता है।
जिस गांव, क्षेत्र या मौहल्ले के चौराहे पर पर यह होली का डंडा स्थापित किया जाता है।
होली का डंडा स्थापित होने के बाद संबन्धित क्षेत्र में होलिका दहन होने तक कोई शुभ कार्य संपन्न नहीं किया जाता है।
सबसे पहले इस दिन, होलाष्टक शुरु होने वाले दिन होलिका दहन स्थान का चुनाव किया जाता है।
इस दिन इस स्थान को गंगा जल से शुद्ध कर, इस स्थान पर होलिका दहन के लिये लकडियां एकत्र करने का कार्य किया जाता है।
इस दिन जगह-जगह जाकर सूखी लकडियां विशेष कर ऐसी लकडियां जो सूखने के कारण स्वयं ही पेडों से टूटकर गिर गई हों, उन्हें एकत्र कर चौराहे पर एकत्र कर लिया जाता है।
होलाष्टक से लेकर होलिका दहन के दिन तक प्रतिदिन इसमें कुछ लकडियां डाली जाती है।
इस प्रकार होलिका दहन के दिन तक यह लकडियों का बड़ा ढेर बन जाता है।
इस दिन से होली के रंग फिजाओं में बिखरने लगते हैं। अर्थात होली की शुरुआत हो जाती है। बच्चे और बड़े इस दिन से हल्की फुलकी होली खेलनी प्रारम्भ कर देते हैं।
होलाष्टक में क्या नहीं करना चाहिए?
होली से पूर्व के 8 दिनों में भूलकर भी विवाह, बच्चे का नामकरण या मुंडन संस्कार न करें, भवन का निर्माण कार्य प्रारंभ न कराएं, कोई यज्ञ या हवन अनुष्ठान करने की सोच रहे हैं तो उसे होली के बाद कराएं। होलाष्टक के समय में नई नौकरी ज्वॉइन करने से बचें अगर होली के बाद का समय मिल जाए तो अच्छा होगा अन्यथा किसी ज्योतिषाचार्य से मुहूर्त दिखा लें। संभव हो तो होलाष्टक के समय में भवन, वाहन आदि की खरीदारी से बचें. होलाष्टक के दौरान शगुन के तौर पर रुपए आदि न दें।होलाष्टक शुरू होने के साथ ही 16 संस्कार जैसे गर्भाधान, विवाह, पुंसवन (गर्भाधान के तीसरे माह किया जाने वाला संस्कार), नामकरण, चूड़ाकरण, विद्यारंभ, गृह प्रवेश, गृह निर्माण, गृह शांति, हवन-यज्ञ कर्म आदि नहीं किए जाते। इन दिनों शुरु किए गए कार्यों से कष्ट की प्राप्ति होती है। इन दिनों हुए विवाह से रिश्तों में अस्थिरता आजीवन बनी रहती है अथवा टूट जाती है। घर में नकारात्मकता, अशांति, दुःख एवं क्लेष का वातावरण रहता है। वहीं होलाष्टक में शुभ कार्य न करने की ज्योतिषीय वजह भी बताई जाती है। ज्योतिष का कहना है कि इन दिनों में नेगेटिव एनर्जी काफी हैवी रहती है। होलाष्टक के अष्टमी तिथि से आरंभ होता है। अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक अलग-अलग ग्रहों की नेगेटिविटी काफी हाई रहती है। जिस कारण इन दिनों में शुभ कार्य न करने की सलाह दी जाती है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार होलाष्टक मे सभी शुभ कार्य करना वर्जित रहते हैं क्योंकि इन आठ दिवस में 8 ग्रह उग्र रहते है इन आठ दिवसों में अष्टमी को चंद्रमा,नवमी को सूर्य,दशमी को शनि,एकादशी को शुक्र,द्वादशी को गुरु, त्रयोदशी को बुध, चतुर्दशी को मंगल, और पूर्णिमा को राहू उग्र रहते हैं इसलिए इस अवधि में शुभ कार्य करने वर्जित है।
होलाष्टक की कथा
कथा 1-श्री शिव पुराण के अनुसार शिवजी ने अपनी तपस्या भंग करने का प्रयास करने पर कामदेव को फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि को भस्म कर दिया था। कामदेव प्रेम के देवता माने जाते हैं, इनके भस्म होने के कारण संसार में शोक की लहर फैल गई थी। जब कामदेव की पत्नी रति द्वारा भगवान शिव से क्षमा याचना की गई, तब शिवजी ने कामदेव को पुनर्जीवन प्रदान करने का आश्वासन दिया। इसके बाद लोगों ने खुशी मनाई। होलाष्टक का अंत धुलेंडी के साथ होने के पीछे एक कारण यह माना जाता है।
कथा 2-श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हरिण्यकशिपु ने अपने पुत्र भक्त प्रह्लाद को भगवद् भक्ति से हटा दिया और हरिण्यकशिपु को ही भगवान की तरह पूजन के लिए कई शोधन दी लेकिन जब किसी भी तरह की बात से बात नहीं बनी तो होली से ठीक आठ दिन पहले उसने प्रह्लाद को मारने का प्रयास किया शुरुआत कर दिए गए थे। लगातार आठ दिनों तक जब भगवान अपने भक्त की रक्षा कर रहे होते हैं तो होलिका के अंत से यह चिल्ली थमा। इसलिए आज भी भक्त इन आठ दिनों को अशुभ मानते हैं। उनका यकीन है कि इन दिनों शुभ कार्य करने से उनमें से कुछ आने की संख्या अधिक रहती है।
प्रश्न:- कृष्ण के ऐश्वर्य को जानने के महत्व को विस्तार से समझाएं।
प्रस्तावना:- इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अपने सखा अर्जुन को अपनी सृष्टियों एवं अपने विभिन्न ऐश्वर्यों के विषय में बता रहे हैं।
श्रीभगवान कहते हैं ना तो देवता और ना ही महर्षि गण ही मेरे उत्पत्ति और ऐश्वर्या को जानते हैं। अतएव श्रीकृष्ण उस हर वस्तु से भिन्न है जिसकी सृष्टि हुई है और जो उन्हें इस रूप में जान लेता है वह तुरंत ही सारे पापों से मुक्त हो जाता है। परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मनुष्य को समस्त पाप कर्मों से मुक्त होना चाहिए जैसा कि श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है कि उन्हें केवल भक्ति के द्वारा ही भगवान को जाना जा सकता है और किसी अन्य साधना से नहीं। श्री भगवान कहते हैं कि मेरे भक्तों के श्रेष्ठ विचार मुझ में वास करते हैं । जो प्रेम पूर्वक मेरी सेवा में निरंतर लगे रहते हैं, मैं उन्हें ज्ञान प्रदान करता हूं जिनके द्वारा वह मुझ तक आ सकते हैं। मैं उन पर विशेष कृपा करके उनके हृदय में निवास करता हूँ, जिससे ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा उनके जीवन का अंधकार दूर हो जाता है । श्रीभगवान कहते हैं कि जैसे ही कृष्णभावनाभावित भक्त भगवान के विषय में सुनता है वैसे ही उसका मन भक्ति का प्रचार-प्रसार होने लगता है।
अतः प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के ९ प्रकार बताए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं।
श्रवण: ईश्वर की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्त्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।
कीर्तन: ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।
स्मरण: निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।
पाद सेवन: ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।
अर्चन: मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।
वंदन: भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।
दास्य: ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।
सख्य: ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।
आत्म निवेदन: अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।
अतः इस प्रकार श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) - इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।
अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥10.12॥
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥10.13॥
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥10.14॥
अपने शब्दों में विस्तार भावार्थ:- भगवान श्रीकृष्ण के सामने बैठे हुए अर्जुन ने कि हे श्रीकृष्ण तुम तो स्वयं परम ब्रह्म हो, परम धाम हो – जिस धाम के अंदर सारा ब्रह्माण्ड स्थित है. प्रवित्रम में भी सबसे पवित्र आप हो, आप शाश्वत हो, दिव्य पुरुष हो, सगुन और निराकार आदिदेव हो, अजन्मा, आप ही सर्व व्यापी, सर्व शक्तिमान विभु हो। वास्तव में अर्जुन कह रहे हैं कि हे कृष्ण आप ही समग्र परमात्मा हो।
धर्मग्रंथों में, सारे ऋषियों, महा ऋषियों ने, देवऋषि नारद, महान असित और उनके पुत्र धवल, महा ऋषि व्यास भी आपको ही परम ब्रह्म मानते हैं. (महाभारत के वन पर्व १२/५०, और भीष्म पर्व में ६८/५ में इसका वर्णन है)।
अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण को यह समझाने का प्रयत्न करा रहे हैं कि हे केशव आपने मुझसे जो कुछ भी कहा है उन सारी बातों पर मुझे पूर्ण विश्वास है। देवतागण और असुरगण भी आपके इस स्वरूप को नहीं जानते है।
इन सभी बातों के उपरांत अर्जुन भगवान से निवेदन करता है की हे प्रभु कृपा करके विस्तार पूर्वक आप मुझे अपने उन देवी ऐश्वर्यों को बताने की कृपा करें जिसके द्वारा आप इन समस्त लोगों में व्याप्त है।
तदोपरांत भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन! मैं सभी के हृदय में स्थित आत्मा हूँ तथा संपूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूँ।
मैं आदित्य में विष्णु, प्रकाशों में सूर्य, मारुति में मरीचि, नक्षत्रों में चंद्रमा, वेदों में सामवेद, देवों में स्वर्ग का राजा इंद्र, इंद्रियों में मन, समस्त रुद्रो में शिव, यक्षों तथा राक्षसों में संपत्ति का देवता कुबेर, वसुओं में अग्नि, समस्त पर्वतों में मेरू पर्वत, समस्त पुरोहितों में बृहस्पति जी, सेनानायकों में कार्तिकेय, समस्त जलाशयों में समुद्र, समस्त महर्षि भृगु, वाणी में ओंकार, यज्ञों में कीर्तन, समस्त अचलो में हिमालय, समस्त वृक्षों में पीपल का वृक्ष, देवर्षियों में नारद मुनि, गन्धर्वों में चित्ररथ, सिद्धों में कपिल मुनि, घोड़ों में उच्चैःश्रवा, हाथियों में ऐरावत, मनुष्यों में राजा, शस्त्रों में वज्र, गौओं में कामधेनु, सन्तान की उत्पत्ति का हेतु कामदेव, सर्पों में सर्पराज वासुकि, नागों में शेषनाग, जलचरों का अधिपति वरुण, पितरों में अर्यमा नामक पितर, शासन करने वालों में यमराज, दैत्यों में प्रह्लाद, गणना करने वालों का समय, पशुओं में मृगराज सिंह, पक्षियों में गरुड़, पवित्र करने वालों में वायु, शस्त्रधारियों में श्रीराम, मछलियों में मगर, नदियों में श्री भागीरथी गंगाजी हूँ।
हे अर्जुन! सृष्टियों का आदि और अंत तथा मध्य भी मैं ही हूँ। मैं अक्षरों में अकार, समासों में द्वंद्व नामक समास, काल का भी महाकाल, सबका नाश करने वाला मृत्यु, स्त्रियों में कीर्ति (श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा), छंदों में गायत्री छंद, महीनों में मार्गशीर्ष, ऋतुओं में वसंत मैं हूँ।
मैं छल करने वालों में जूआ, जीतने वालों का विजय, निश्चय करने वालों का निश्चय, सात्त्विक पुरुषों का सात्त्विक भाव, वृष्णिवंशियों में वासुदेव, पाण्डवों में धनञ्जय अर्थात् तू, मुनियों में वेदव्यास, कवियों में शुक्राचार्य कवि दमन करने वालों का दंड, जीतने की इच्छावालों की नीति, गुप्त रखने योग्य भावों का रक्षक मौन, ज्ञानवानों का तत्त्वज्ञान मैं ही हूँ।
अतः अर्जुन इस ज्ञान को जानने की क्या आवश्यकता है? मैं तो स्वयं अपने एक अंश मात्र से संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त होकर इसको ग्रहण करता हूं।
उपसंहार:- अतः भगवान के ऐश्वर्य को वही जान सकता है जोकि भगवान की भक्ति करता है, वही उसे समझ सकता है, वही उसे जान सकता है, वही उसे प्राप्त कर सकता है, कोई अन्य व्यक्ति उसे प्राप्त नहीं कर सकता।
नाम संकीर्तनं यस्य सर्व पाप प्रणाशनम् ।
प्रणामो दुःख शमनः तं नमामि हरिं परम् ॥
मैं उन 'हरि' को प्रणाम करता हूँ जिनका नाम संकीर्तन सभी पापों को समाप्त करता है और जिन्हें प्रणाम करने मात्र से सारे दुःखों का नाश हो जाता है।
राखी को पहले
'रक्षा सूत्र' कहते थे। रक्षा सूत्र को बोलचाल की भाषा में राखी कहा जाता है जो वेद
के संस्कृत शब्द 'रक्षिका' का अपभ्रंश है। मध्यकाल में इसे राखी कहा जाने लगा। राखी
को श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है इसलिए राक्ष कहने के पूर्व पहले इसे श्रावणी
या सलूनो कहते थे। इसी तरह प्रत्येक प्रांत में इसे अलग अलग नामों से जाना जाने लगा
है। जैसे दक्षिण में नारियय पूर्णिमा, बलेव और अवनि अवित्तम, राजस्थान में रामराखी
और चूड़ाराखी या लूंबा बांधने का रिवाज है। रामराखी इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों
वाला फुंदना लगा होता है।
रक्षा सूत्र बांधने की परंपरा वैदिक काल से रही है जबकि व्यक्ति
को यज्ञ, युद्ध, आखेट, नए संकल्प और धार्मिक अनुष्ठान के दौरान कलाई पर सूत का धागा
जिसे 'कलावा' या 'मौली' कहते हैं- बांधा जाता था। रक्षा बंधन के अलावा भी अन्य कई धार्मिक
मौकों पर आज भी रक्षा सूत्र बांधा जाता है। यही रक्षा सूत्र आगे चलकर पति-पत्नी, मां-बेटे
और फिर भाई-बहन के प्यार का प्रतीक बन गया। रक्षा बंधन
के दिन बहनों का खास महत्व होता है। विवाहित बहनों को भाई अपने घर बुलाकर उससे राखी
बंधवाता है और उसे उपहार देता है रक्षा बंधन पर बहनें अपने भाई को राखी बांधती हैं।
पहले सूत का धागा होता था, फिर एक फुंदा बांधने का प्रचलन हुआ और बाद में पक्के धाके
पर फोम से सुंदर फुलों को बनाकर चिपकाया जाने लगा जो राखी कहलाने लगी। वर्तमान में
तो राखी के कई रूप हो चले हैं। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे,
रेशमी धागे, तथा सोने या चांदी जैसी मंहगी वस्तु तक की हो सकती है।
रक्षासूत्र
का इतिहास:-
प्राचीनकाल
से ही रक्षाबंधन मुख्यत: हिन्दुओ का त्यौहार रहा है। कुछ मुख्य कथा प्रचलित हैं। राखी के त्योहार
का एक पौराणिक मंत्र है। रक्षाबंधनकामंत्रहै:-
"येनबद्धोबलिर्राजादानवेन्द्रोमहाबलः।
तेनत्वामभिवध्नामिरक्षेमाचलमाचलः।"
इसमंत्रकीरचनाकैसेहुईइससेजुड़ीकथाहैकि, विष्णुभगवाननेवामनबनकरराजाबलिसेदानमेंसबकुछमांगलिया।राजाबलिकोजबभगवानकीचालकाज्ञानहुआतबउसनेवामनभगवानसेवरदानमांगाकिहेभगवानआपमेरेसाथपातालमेंनिवासकरें। धर्मशास्त्र के विद्वानों के अनुसार
इसका अर्थ यह है कि रक्षा सूत्र बांधते समय ब्राह्मण या पुरोहत अपने यजमान को कहता
है कि जिस रक्षासूत्र से दानवों के महापराक्रमी राजा बलि धर्म के बंधन में बांधे गए
थे अर्थात् धर्म में प्रयुक्त किए गये थे, उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूं, यानी
धर्म के लिए प्रतिबद्ध करता हूं। इसके बाद पुरोहित रक्षा सूत्र से कहता है कि हे रक्षे
तुम स्थिर रहना, स्थिर रहना। इस प्रकार रक्षा सूत्र का उद्देश्य ब्राह्मणों द्वारा
अपने यजमानों को धर्म के लिए प्रेरित एवं प्रयुक्त करना है।
सावनपूर्णिमाकेदिनबलिकोदेवीनेराखीबांधा।राजाबलिनेजबदेवीसेराखीबंधनेकेबदलेउपहारमांगनेकोकहातोदेवीनेभगवानविष्णुकोवरदानकेबंधनसेमुक्तकरनेकावचनमांगलिया।बलिनेभगवानकोवरदानसेमुक्तकरदियाऔरमातालक्ष्मीकेसाथबैकुण्ठलौटआए। राजा बलि को राखी बांधकर लक्ष्मी
ने भगवान विष्णु को बंधन से मुक्त करावाया। जाते समय भगवान विष्णु ने राजा बलि को वरदान
दिया कि वह हर साल चार महीने पाताल में ही निवास करेंगे। यह चार महीना चर्तुमास के
रूप में जाना जाता है जो देवशयनी एकादशी से लेकर देवउठानी एकादशी से लेकर देवउठानी
एकादशी तक होता है। रक्षासूत्रकेइसीमहत्वकेकारणपरंपरागततौरपरराखीकात्योहारसदियोंसेमनायाजारहाहै।इसीघटनाकोरक्षाबंधनकेमंत्रकेरूपमेंरचागया।
Rakhi was
earlier called 'Raksha Sutra'. The Raksha Sutra is colloquially called Rakhi
which is an aberration of the Sanskrit word 'Rakshika' of Vedas. In medieval
times it came to be called Rakhi. Rakhi is celebrated on the full moon of the
month of Shravan, so before being called Rakshasa, it was earlier called
Shravani or Saluno. Similarly, it has come to be known by different names in
each province. For example, in the South, it is customary to tie Nariyaya
Purnima, Balev and Avani Avittam, in Rajasthan Ramrakhi and Chudarakhi or
Loomba. In this Ramrakhi, there is a yellow splatter on the red thread.
The tradition of tying the thread of protection has been
there since the Vedic period, when a person was tying a thread of yarn called
'Kalava' or 'Mauli' on the wrist during yagya, war, hunting, new resolve and
religious rituals. Apart from Raksha Bandhan, on many other religious
occasions, the thread of protection is tied even today. This Raksha Sutra later
became a symbol of the love of husband-wife, mother-son and then
brother-sister. Sisters have special significance on the day of Raksha Bandhan.
Brother invites married sisters to his house and ties Rakhi to them and gives
them gifts. On Raksha Bandhan, sisters tie Rakhi to their brother. First there
was a thread of yarn, then there was a practice of tying a knot and later on a
strong thread, beautiful flowers were made and pasted from the foam, which came
to be called Rakhi. At present there are many forms of Rakhi. Rakhi can range from
a cheap item like raw yarn to colorful artefacts, silk thread, and expensive
item like gold or silver.
History of Rakshasutra:-
Rakshabandhan
has been mainly a festival of Hindus since ancient times. Some main stories are
popular. There is a mythological mantra for the festival of Rakhi. The mantra
of Rakshabandhan is :-
"Yen badho balirraja danavendro mahabalah.
Ten tvambhivadhnami raksha ma chal ma chalah."
There is a
story related to how this mantra was composed that, Lord Vishnu became Vamana
and asked for everything in donation from King Bali. When King Bali came to
know about the tricks of the Lord, he asked for a boon from Lord Vamana that
Lord, you should reside with me in Hades. According to the scholars of
Dharmashastra, this means that while tying the thread of protection, the
Brahmin or the priest tells his host that the Rakshasutra by which the mighty
kings of the demons were tied in the bond of sacrifice, i.e., were used in
religion, by the same thread I I bind you, that is, I commit you to religion.
After this, the priest tells the Raksha Sutra that O Rakshasa, you remain
stable, remain stable. In this way the purpose of the Raksha Sutra is to
inspire and use the Brahmins for religion to their hosts.
Lord Vishnu
went to Hades with King Bali. Due to this, Mother Lakshmi became sad and
started thinking of ways to free the Lord from the bondage of the boon given to
King Bali. Mother Lakshmi changed her disguise to King Bali and made King Bali
his brother.
On the day of
Sawan Purnima, the goddess tied a rakhi to Bali. When King Bali asked the
goddess to ask for a gift instead of tying a rakhi, the goddess asked for a
promise to free Lord Vishnu from the bondage of boon. Bali freed the Lord from
the boon and returned to Baikuntha with Mother Lakshmi. By tying a rakhi to
King Bali, Lakshmi freed Lord Vishnu from bondage. While leaving, Lord Vishnu
granted a boon to King Bali that he would reside in Hades for four months every
year. This four month is known as Chatumas which is from Devshayani Ekadashi to
Devuthani Ekadashi to Devuthani Ekadashi. Due to this importance of Raksha
Sutra, traditionally the festival of Rakhi is being celebrated for centuries.
This incident was composed as the mantra of Rakshabandhan.
Rakshabandhan Story-1
Once
Yudhishthira asked Lord Krishna- 'O Achyuta! Tell me the story of
Rakshabandhan, which removes the evil and misery of human beings. Lord Krishna
said- O best of Pandavas! Once a war broke out between the demons and the suras
and this war continued for twelve consecutive years. The Asuras defeated the
gods and defeated their representative Indra too. In such a condition Indra
along with the deities went to Amravati. On the other hand, the conqueror
Daityaraj took all the three worlds under his control. He declared from the
throne that Indradev should not come to the meeting and that gods and humans
should not perform yagya-karma. May all people worship me.
With this
order of the demon king, the Yagya-Vedas, reading-learning and festivals etc.
ended. With the destruction of religion, the power of the gods started
decreasing. Seeing this, Indra went to his guru Jupiter and fell at his feet
and started requesting - Guruvar! In such a situation, the circumstances say
that I have to give my life here. I can neither run nor survive on the
battlefield. Tell me some solution. Hearing the pain of Indra, Brihaspati asked
him to do protection legislation. On the morning of Shravan Purnima, the
defense legislation was performed with the following mantra.
"Yen badho balirraja danavendro mahabalah.
Ten tvambhivadhnami raksha ma chal ma chalah."
On the
auspicious occasion of Shravani Purnima, Indrani took the thread of defense by
getting the dvijas to do swastivachan and tied it on Indra's right wrist and
sent them to fight in the battlefield. Due to the effect of 'Rakshabandhan',
the demons ran away and Indra was victorious. The tradition of tying Rakhi
originates from here.
Rakshabandhan Story-2
Once Lord
Krishna got hurt in his hand and a stream of blood came out. All this was not
seen by Draupadi and she immediately tore the pallu of her sari and tied it in
Krishna's hand, as a result of which the bleeding stopped. After some time,
when Dushasana ripped Draupadi, Shri Krishna paid the favor of this bond by
raising a rag. This episode also shows the importance of Rakshabandhan.
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अनुवाद:-
हे विलासिनी श्रीराधे! देखो! पीतवसन धारण किये हुए, अपने तमाल-श्यामल-अंगो में चन्दन
का विलेपन करते हुए, केलिविलासपरायण श्रीकृष्ण इस वृन्दाविपिन में मुग्ध वधुटियों के
साथ परम आमोदित होकर विहार कर रहे हैं, जिसके कारण दोनों कानों में कुण्डल दोलायमान
हो रहे हैं, उनके कपोलद्वय की शोभा अति अद्भुत है। मधुमय हासविलास के द्वारा मुखमण्डल
अद्भुत माधुर्य को प्रकट कर रहा है ॥1॥
Translation:- O Vilasini Sriradhe! See! Wearing a Pitavasan,
smearing sandalwood in his black-brown limbs, Kelivilasparayan Sri Krishna is
residing in this Vrindavipin with the enchanted brides in great ecstasy, due to
which the coils in both the ears are oscillating, the grace of his cupoladya,
is exceedingly wonderful. The face is revealing the wonderful melody through
sweet gusto.
अनुवाद:-
देखो सखि! वह एक गोपांगना अपने पीनतर पयोधर-युगल के विपुल भार को श्रीकृष्ण के वक्षस्थल
पर सन्निविष्टकर प्रगाढ़ अनुराग के साथ सुदृढ़रूप से आलिंगन करती हुई उनके साथ पञ््चम
स्वर में गाने लगती है।
Translation:- Look friend! That one gopangana embracing the
bountiful weight of her peter Payodhara-couple on the chest of Sri Krishna,
firmly embracing them with deep affection, begins to sing with him in the fifth
voice.
Translation:- Look friend! Just as Shri Krishna causes
madness in the minds of the kaminis with the devious eyes of the fickle eyes
filled with the make-up of the face of their own pleasure, similarly this one
bridegroom is also meditating on that Shri Krishna after being engrossed in the
desire of the vulgar (consecrated) Makarand paan in that lotus flower.
अनुवाद:-
वह देखो सखि! एक नितम्बिनी (गोपी) ने अपने प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के कर्ण (श्रुतिमूल)
में कोई रहस्यपूर्ण बात करने के बहाने जैसे ही गण्डस्थल पर मुँह लगाया तभी श्रीकृष्ण
उसके सरस अभिप्राय को समझ गये और रोमाञ्चित हो उठे। पुलकाञ्चित श्रीकृष्ण को देख वह
रसिका नायिका अपनी मनोवाञ्छा को पूर्ण करने हेतु अनुकूल अवसर प्राप्त करके उनके कपोल
को परमानन्द में निमग्न हो चुम्बन करने लगी।
Translation:- Look at that friend! As soon as a Nitambini
(Gopi) put her face on the Gandasthal on the pretext of saying some mysterious
thing in the Karna (Shrutimool) of his life-saving Shri Krishna, only then Shri
Krishna understood his sarcastic meaning and got thrilled. Seeing Pulkanchit
Shri Krishna, that Rasika heroine, getting a favorable opportunity to fulfill
her desire, started kissing his forehead engrossed in ecstasy.
अनुवाद:-
सखि! देखो, यमुना पुलिन पर मनोहर वेतसी (वञ्जुल या वेंत) कुञ्ज में किसी गोपी ने एकान्त
पाकर कामरस वशवर्त्तिनी हो क्रीड़ाकला कौतूहल से उनके वस्त्रयुगल को अपने हाथों से
पकड़कर खींच लिया।
Translation:- Friend! Look, in the beautiful Vetsi (Vanjul
or Vent) Kunj on the Yamuna bridge, a gopi, having found solitude, became
Kamaras Vashvartini, with curiosity, grabbed his clothes couple with his hands
and pulled.
अनुवाद:-
हाथों की ताली के तान के कारण चञ्चल कंगण-समूह से अनुगत वंशीनाद से युक्त अद्भुत स्वर
को देखकर श्रीहरि रासरस में आनन्दित नृत्य-परायणा किसी युवती की प्रशंसा करने लगे।
Translation:- Seeing the wonderful voice consisting of the
descendants from the playful group, because of the clap of the hands, Srihari
started praising a young woman, a dance-parayan, rejoicing in the Rasaras.
अनुवाद:-
श्रृंगार-रस की लालसा में श्रीकृष्ण कहीं किसी रमणी का आलिंगन करते हैं, किसी का चुम्बन
करते हैं, किसी के साथ रमण कर रहे हैं और कहीं मधुर स्मित सुधा का अवलोकन कर किसी को
निहार रहे हैं तो कहीं किसी मानिनी के पीछे-पीछे चल रहे हैं।
Translation:- In the longing for makeup-rasa, Shri Krishna
embraces some beautiful person, kisses someone, is enjoying with someone and is
looking at someone after seeing the sweet smile Sudha, and somewhere behind a
mani - Running backwards.
अनुवाद:-श्रीजयदेव कवि द्वारा रचित यह अद्भुत मंगलमय ललित गीत सभी के यश का विस्तार करे। यह
शुभद गीत श्रीवृन्दावन के विपिन विहार में श्रीराधा जी के विलास परीक्षण एवं श्रीकृष्ण
के द्वारा की गयी अद्भुत क्रीड़ा के रहस्य से सम्बन्धित है। यह गान वन बिहारजनित सौष्ठव
को अभिवर्द्धित करने वाला है।
Translation:- May this wonderful melodious fine song
composed by the poet Shree Jayadeva expand the fame of all. This auspicious
song is related to the mystery of the luxury test of Shri Radha ji and the
wonderful play performed by Shri Krishna in Vipin Vihar of Sri Vrindavan. This
anthem is going to promote the beauty of forest Bihar.